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________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४१९ लेकर नौवें तक असंयम के सिवाय पांचवें वाले सब। दसवें में वेद के सिवाय नौवें वाले सब, ग्यारहवें-बारहवें में कषाय के सिवाय दसवें वाले सब। तेरहवें में असिद्धत्व, लेश्या और गति। चौदहवें में गति और असिद्धत्व। (३) क्षायिक-चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक में सम्यक्त्व, बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो, और तेरहवें चौदहवें में-नौ क्षायिक भाव। (४) औपशमिक-चौथे से आठवें तक सम्यक्त्व, नौवें से ग्यारहवें तक सम्यक्त्व और चारित्र। (५) पारिणामिक-पहले में तीनों, दूसरे से बारहवें तक में जीवत्व और भव्यत्व दो, तथा तेरहवें-चौदहवें में एक-जीवत्व। ___इस प्रकार की प्ररूपणा से यह स्पष्ट है, पांच भावों में मूल या उत्तरभेदों में प्रवर्तमान जीव मोहकर्म की शक्तियों को उत्तरोत्तर क्षीण करता हुआ कर्मबन्ध से कर्मक्षय की ओर गति-प्रगति कर सकता है। . १. देखें-चतुर्थ कर्मग्रन्थ की गा० ७० के आधार पर, तृतीयाधिकार परिशिष्ट 'ब' (पं० सुखलालजी), पृ० २३१, २३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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