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________________ गुणस्थानों में जीवस्थान आदि की प्ररूपणा ४०१ (५) गुणस्थानों में बन्ध-हेतु-प्ररूपणा सामान्यतया कर्मबन्ध के मूल हेतु पांच हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। कर्मबन्ध के कारणों की संख्या के विषय में निम्रोक्त तीन परम्पराएँ आगमों और ग्रन्थों में दृष्टिगोचर हुई हैं- (१) कषाय और योग, ये दोनों ही बन्ध हेतु हैं, (२) मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पांचों विभिन्न अपेक्षाओं से कर्मबन्ध के हेतु हैं। (३) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग, ये चार बन्ध हेतु हैं। बारीकी से देखा जाए तो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध का हेतु योग, और स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध का हेतु कषाय है। चारों प्रकार के बन्ध योग और कषाय, इन दोनों में समाविष्ट हो जाते हैं। यों देखा जाए तो रागद्वेष मोहरूप मिथ्या परिणामरूप होने से मिथ्यात्व का योग में अन्तभूर्त हो जाता है। अविरति एवं प्रमाद एक प्रकार से कषाय-नोकषायरूप होने से कषाय के अन्तर्गत समाविष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार प्रमाद भी एक प्रकार का असंयम ही है, उसका अविरति में समावेश हो जाता है। अतः स्पष्ट बोध करने हेतु यहाँ बन्ध के मुख्य चार हेतुओं- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग का ग्रहण किया गया है। जितने अधिक बन्धहेतु : उतने अधिक कर्मबन्ध कर्मग्रन्थों तथा कर्मविज्ञान के प्रतिपादक ग्रन्थों में आध्यात्मिक विकास की भूमिकारूप गुणस्थानों में बंधने वाली कर्मप्रकृतियों के तरतमभाव को बतलाने के (पृष्ठ ३९५ का शेष) के भी भावलेश्या शुभ होती है? (उ०) समाधान यह है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या के सम्बन्ध में यह नियम नहीं है कि दोनों समान ही होनी चाहिए। यद्यपि मनुष्य और तिर्यञ्च, जिनकी द्रव्यलेश्या अस्थिर होती है, उनमें जैसी द्रव्यलेश्या होती है, वैसी ही भावलेश्या होती है, परन्तु देवों और नारकों, जिनके द्रव्यलेश्या अवस्थित (स्थिर) मानी गई है, उनके विषय में इससे उलटा है। अर्थात् नारकों में अशुभ द्रव्यलेश्या के होते हुए भी भावलेश्या शुभ हो सकती है। इसी प्रकार शुभ द्रव्यलेश्या वाले देवों में भावलेश्या अशुभ भी हो . सकती है। इसको विशद्प से समझने के लिए देखें-प्रज्ञापनासूत्र का १७वाँ लेश्यापद और उसकी वृत्ति। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ टिप्पण, पृ० १७३ १. (क) बंधस्स मिच्छ अविरइ कसाय जोगत्ति चउ हेऊ॥५०॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा० ५० उत्तरार्ध विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० १७४, १७५ (ग) मिथ्यादर्शनाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योग बन्धहेतवः। -तत्वार्थ सूत्र अ० ८ सू. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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