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________________ विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३८९ से मनुष्य की प्रवृत्ति धर्मज्ञान और ऐश्वर्य की ओर अभिमुख रहती है, किन्तु रजोगुण के कारण यदाकदा चित्त विक्षिप्त और डांवाडोल होता रहता है। ____ योगदर्शन के अनुसार इन तीनों अवस्थाओं की योग की भूमिका में गणना नहीं की गई है, क्योंकि इन तीनों में चित्त वृत्ति प्रायः बहिर्मुखी होती है। लेकिन विक्षिप्त अवस्था में वह कभी-कभी अन्तर्मुखी भी होती है, किन्तु मन शीघ्र ही पुनः विषयों में भटकने लगता है। ४. एकाग्र-इस अवस्था में मन किसी प्रशस्त विषय में एकाग्र या तल्लीन हो जाता है। जब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव घट जाता है, तब चित्त इधर-उधर भटकना छोड़कर एक विषय में एकाग्र और स्थिर हो जाता है। दीर्घकाल तक चित्त में चिन्तन की एक धारा चलती रहती है। इससे उसकी विचार शक्ति में उत्तरोत्तर गहनता आती जाती है। साधक जिस बात को सोचता है, उसकी गहराई में उतरता जाता है। आँखें बंद करने पर भी वही तथ्य उसके दिमाग में घूमता रहता है। इस प्रकार की एकाग्रता होने पर वह वस्तु उसके स्वाधीन और अधिकृत हो जाती है। ऐसी ही अवस्था में योग की विशिष्ट शक्तियाँ उभरती हैं। इस भूमिका को सम्प्रज्ञात या सबीजसमाधि कहते हैं। उसकी चार अवस्थाएँ हैं- वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। ५. निरुद्ध-जिस चित्त में समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। एकमात्र संस्कार ही शेष रह गए हों, वह निरुद्ध अवस्था है। इस अवस्था को असम्प्रज्ञात या निर्बीज- समाधि कहते हैं। इसके प्राप्त हो जाने पर चित्त के साथ व्यक्ति का सम्बन्ध टूट जाता है और वह अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लेता है। इसी का दूसरा नाम स्वरूपावस्थान है। इस अवस्था में पुरुष द्रष्टा बनकर बाह्य विषयों के चिन्तन को सर्वथा छोड़कर स्वरूप में स्थिर हो जाता है। ___ यही कारण है कि योगदर्शन में इन पांच अवस्थाओं को दृष्टिगत रखकर चित्त के दो भेद किये गए हैं-व्युत्थान-चित्त और निरुद्ध-चित्त। प्रथम तीन अवस्थाओं का सम्बन्ध व्युत्थानचित्त के साथ है और अन्तिम दो अवस्थाओं का सम्बन्ध निरुद्ध (निरोध) चित्त के साथ है। चित्त की प्रथम तीन अवस्थाएँ अविकासकाल की हैं और अन्तिम दो अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकासक्रम को सूचित करती हैं। चित्त की इन पांचों अवस्थाओं में मूढ़ और क्षिप्त में रजोगुण और तमोगुण की इतनी अधिक १. (क) पातंजल योगदर्शन पाद १, सूत्र १ का व्यासभाष्य तथा वाचस्पति मिश्र की ... टीका। (ख) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि), पृ० १७५, १७६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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