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________________ विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएँ ३८३ परन्तु इसी सर्वविरतिचारित्र में रहते हुए जब साधक अप्रमत्त होकर स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन, समतायोग आदि की साधना में तल्लीन हो जाता है, तब वह अन्तरात्म तत्त्व की एक सीढ़ी और ऊपर चढ़ जाता है । यह अप्रमत्तसंयत नामक सप्तम गुणस्थान है और अन्तरात्म तत्त्व की चतुर्थ श्रेणी है। किन्तु अपरिपक्व साधक की मनोवृत्ति अहर्निश अप्रमत्त नहीं रह पाती । श्रमण - साधनावस्था में शारीरिकमानसिक द्वन्द्व, शोक, चिन्ता, मद, विकथा, निन्दा, ईर्ष्या, पदलोलुपता, पूजा-प्रतिष्ठा, सत्कार-सम्मान आदि अनेक संकल्प-विकल्प आकर उसके मन को व्यथित, विक्षिप्त एवं चिन्तित कर डालते हैं । इस कारण एकान्तरूप से अनवरत अप्रमत्तावस्था में वह रह नहीं सकता। इसलिए कभी प्रमत्त और कभी अप्रमत्त दोनों अवस्थाओं में चलता रहता है। जब कोई साधक अप्रमत्त-अवस्था में रहते हुए परम आत्मसमाधि में तल्लीन हो जाता है और अपनी मन-वचन-काय की प्रवृत्ति को बाहर से हटाकर एकमात्र अन्तर्मुखी और आत्मस्वरूप में स्थिर करता है । उस समय उसके हृदय में एक विशुद्ध व अपूर्व भाव जागृत होता है । ऐसी स्थिति में उसके पूर्वभवसंचित कर्मबन्धन तथा चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम या क्षय क्रमशः चार या पांच श्रेणियों में होता है। यह अवस्था आठवें से लेकर ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान तक की होती है। इन ४ या ५ अवस्थाओं में श्रमण पूर्वबद्ध कर्मबन्धनों को क्रमशः घटाता है और ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है, जब नये बंधने वाले कर्मों का सर्वथा अभाव हो जाता हैं, केवल एक समय जैसी अत्यल्प -स्थिति वाला सातावेदनीय कर्म का नाममात्र का बन्ध होता है। साथ ही अनादिकाल से बद्ध मूल - उत्तर - कर्म प्रकृतियों के बन्ध में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार घातिकर्मों का समूल क्षय कर डालता है। यह अन्तरात्म-तत्व की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है। परमात्मदशा : दो गुणस्थानों में अन्तरात्मा की इस (बारहवें गुणस्थान की) सर्वोत्कृष्ट अवस्था में चार घातिकर्मों के क्षय होते ही तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान में परमात्मदशा प्रकट हो जाती है । वह आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्तचतुष्टय धारक जीवन्मुक्त हो जाता है। जब तक उसका आयुष्यकर्म समाप्त नहीं होता, तब तक शरीर आदि बने रहते हैं । शरीरसहित रहने वाली इस परमात्मदशा को सशरीर परमात्मा कहते हैं, जिसे अन्य दार्शनिक सगुण या साकार या सदेह परमात्मा कहते हैं। शरीर को 'कल' भी कहते हैं । शरीर के साथ रहने वाली यह परमात्मदशा सदेह या 'सकल' कहलाती है। इस सकल परमात्म-अवस्था में रहते हुए वे केवली भगवान् विश्व के विभिन्न अंचलों में पादविहार करते हुए स्वयं आत्मस्थ रहकर मुमुक्षु जीवों को सन्मार्ग पर चलने के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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