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________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३६७ मिथ्यात्व-दलिक नहीं रहने से यहाँ पर प्रथम समय में ही उसे उपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इस प्रकार अनिवृत्तिकरण के बल पर अन्तरकरण करते हुए जब निष्ठाकाल का अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है, तब सर्वप्रथम मिथ्यात्व निकलता है, क्योंकि मिथ्यात्व के दलिकों को पहले ही वहाँ से नष्ट कर दिया गया है। अतः यहाँ मिथ्यात्व के उपशम से उपशमभाव द्वारा समुत्पन्न होने वाला सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। इसमें मिथ्यात्वमोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय - चतुष्क का अनुदय अर्थात्उपशम होता है । उपशमभाव द्वारा समुत्पन्न होने से यह सम्यक्त्व औपशमिक कहलाता है। जब जीव अनिवृत्तिकरण करता है, तब अनादिकालीन अज्ञान का अन्त आता है। ऐसी स्थिति में सम्यक् परिणति रूप सम्यक्त्व प्राप्त होता है। इससे संसारपरिणति का अन्त आता है। संसार परित्त (परिमित) हो जाता है। जिस प्रकार दावानल जलता-जलता ऊषर भूमि या रेतीली भूमि के प्रदेश में आते ही शान्त हो जाता है, वैसे ही अनादिकालिक संसार का अज्ञान एवं मिथ्यात्व अनिवृत्तिकरण के अन्तरकरण के फलस्वरूप शुद्ध सम्यक्त्व - प्राप्ति के पास आते ही दूर हो जाता है । १ " तीनों करणों के माध्यम से आध्यात्मिक विकास के प्रथम सोपान पर पूर्वोक्त तीनों करणों के माध्यम से जीव अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा का शुभारम्भ करता हुआ विकास के प्रथम सोपान पर चढ़ता है। यद्यपि यह सारी प्रक्रिया मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान में होती है। इसके पश्चात् वह जीव सीधा अविरत सम्यक्त्व नामक चतुर्थ स्थान पर आ जाता है। चतुर्थ गुणस्थान की भूमिका में विपर्यास रहित सच्ची अध्यात्म दृष्टि यह दशा आध्यात्मिक विकास क्रम की चतुर्थ भूमिका या चौथा गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आत्मिक शान्ति तथा आत्मस्वरूप के दर्शन की अनुभूति करता है। इस भूमिका में अध्यात्म दृष्टि यथार्थ (आत्मस्वरूपोन्मुखी) होने सेविपर्यास रहित हो जाती है। इसे ही जैन दर्शन में सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्व कहा है । यह भूमिका प्राप्त होते ही जीव स्वरूप का दर्शन कर लेता है। अर्थात्- अब तक उसकी जो पररूप में स्व-स्वरूप की भ्रान्ति थी, वह मिट जाती है। अतएव उसके १. (क) कर्म की गति न्यारी भा. १, पृ. ७९, ८० (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना, (पं. सुखलाल जी), पृ. १९ २. जिनोक्तादविपर्यस्ता सम्यग्दृष्टि र्निगद्यते । सम्यक्त्व- शालिनां सा स्यात्, तच्चैवं जायतेऽङ्गिनाम् ॥ ५९६ ॥ - लोकप्रकाश सर्ग ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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