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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३२९ इष्ट के अतिरिक्त दूसरे अर्थ का बोध नहीं होता। अतः छद्मस्थ स्वरूप बोधक विशेषण है, जो विशेष्य के वास्तविक स्वरूप का बोध कराता है। 'उपशान्त कषाय' और 'वीतराग' इन दोनों व्यावर्तक विशेषणों के न रहने पर इष्ट अर्थ का बोध न होकर अन्य अर्थ का भी बोध हो जाता है। जैसे-उपशान्त कषाय विशेषण न रहे तो 'वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थान' इतने भर नाम से इष्ट अर्थ (ग्यारहवें गुणस्थान) के सिवाय बारहवें गुणस्थान का भी बोध होने लगेगा, क्योंकि बारहवें गुणस्थान में भी जीव को छद्म (ज्ञानावरणीयादि घाति कर्म) तथा वीतरागत्व (रागोदय का अभाव) होता है। परन्तु 'उपशान्त कषाय' विशेषण से बारहवें गुणस्थान का बोध नहीं हो पाता; क्योंकि बारहवें गुणस्थान में कषाय क्षय हो जाते हैं। इसी तरह 'वीतराग' विशेषण न रहने पर 'उपशान्त कषाय छद्मस्थ' नाम रहने से चतुर्थ पंचम आदि गुणस्थानों का भी बोध होने लगेगा, क्योंकि उन गुणस्थानों में वर्तमान जीव के भी अनन्तानुबन्धी आदि कषाय उपशान्त हो जाते हैं। परन्तु 'वीतराग' विशेषण रहने से चतुर्थ, पंचम आदि गुणस्थानों का बोध नहीं हो सकेगा, क्योंकि इन गुणस्थानों में राग (माया और लोभ) का उदय होने से वीतरागत्व असम्भव है।१. ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने में असमर्थ होता है, वह उपशम श्रेणी द्वारा दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्म (संज्वलन) लोभ का उपशमन होते ही ग्यारहवें गुणस्थान में आता है, किन्तु दसवें से सीधा बारहवें गुणस्थान में नहीं जाता है। दसवें से सीधा बारहवें आदि आगे के गुणस्थानों में वही जीव पहुँच सकता है, जिसने क्षपकश्रेणी की हो। इसके विपरीत क्षपक श्रेणी पर चढ़ता हुआ जीव इस (ग्यारहवें) गुणस्थान में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाता है। जैसे ट्रेन धीमी हो तो प्रत्येक स्टेशन पर खड़ी होती है, तेज (Fast) हो तो कुछ स्टेशनों को छोड़ती हुई चलती है। वैसे ही उपशम श्रेणी को धीमी ट्रेन और क्षपक श्रेणी को तेज ट्रेन के समान समझना चाहिए। मोह इस गुणस्थान में - उपशान्त हो जाता है। इस कारण वीतरागता तो आ जाती है, किन्तु ज्ञानावरणादि तीन घाती कर्म विद्यमान रहते हैं। अत: वीतरागी बन जाने पर भी वह जीव छद्मस्थ या अल्पज्ञ रहता है, सर्वज्ञ नहीं होता। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २, विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ३६, ३७ २. (क) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप, पृ. १६७ . (ख) आत्मतत्व-विचार, पृ. ४९४ । (ग) गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ६२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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