SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३२१ पहले अनुलब्ध) अध्यवसाय (आत्मिक उत्थान काल का विशिष्ट भावोत्कर्ष) का प्राप्त होना अपूर्वकरण है। अर्थात्-चारित्रमोहनीय कर्म के उपशम या क्षय की तैयारी इसी प्रबल भूमिका (सम्यग्दृष्टि अवस्था) यहीं (इसी गणस्थान) से प्रारम्भ होती है। अथवा अपूर्व अर्थात्-पहले नहीं हुए ऐसे करण-परिणाम; अथवा करण यानी क्रियाएँ-स्थितिघात आदि क्रियाएँ, जिस गुणस्थान में होती हैं, उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। आठवें गुणस्थानकाल में जीव इन पांच अपूर्व वस्तुओं का विधान करता है(१) अपूर्व स्थितिघात, (२) अपूर्व रसघात, (३) अपूर्व गुणश्रेणि, (४) अपूर्व गुण-संक्रमण, और (५) अपूर्व स्थितिबन्ध। ये पांचों अपूर्व पदार्थ उत्पन्न करने वाले परिणाम भी अपूर्व ही होते हैं, इसलिए अपूर्व परिणाम को अपूर्वकरण रूप कहा जा सकता है। स्थितिघात आदि पांचों अपूर्वो का स्वरूप (१) स्थितिघात-ज्ञानावरणादि कर्मों की दीर्घकालिक स्थिति को अपवर्तनाकरण द्वारा घटाकर अल्प, अल्पतर, अल्पतम कर देना; अर्थात्- जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण द्वारा उनके उदय के नियत स्थानों से हटा देना स्थितिघात कहलाता है। (२) रसघात-बंधे हुए तथा सत्ता में पड़े हुए ज्ञानावरणीयादि अशुभ कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति (तीव्र स्स) को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटा कर मन्द, मन्दतर, मन्दतम कर देना रसघात कहलाता है। . १. (क) करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। तेषु प्रविष्टा शुद्धिर्येषां ते अपूर्वकरण-प्रविष्ट . शुद्धयः। -धवला १/१/१ सू. १६, पृ. १८० : (ख) एदम्मि गुणट्ठाणे विसरिस-समयट्ठिएहिं जीवहिं।। · पुव्वमपत्ता जम्हा होंति य पुव्वा हु परिणामा। -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ५०, ५१ तथा गा. ५२ ... (ग) जैन दर्शन (न्या. न्या. न्यायविजय जी), पृ. ११३ । (घ) चौद गुणस्थान पृ. १२९, १३० (ङ) प्रथम गुणस्थान में प्रवर्त्तमान यथाप्रवृत्तिकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सम्यक्त्व के साथ सम्बन्ध रखते हैं। जीव सम्यक्त्व प्राप्त करते रागद्वेष की निविड़ ग्रन्थी का भेदन करता है, वह अपूर्वकरण सम्यक्त्व मोह से सम्बन्धित है। यहाँ यथा प्रवृत्तिकरण, (सप्तम गुणस्थान), अपूर्वकरण (अष्टम गुणस्थान) और अनिवृत्तिकरण (नौवाँ गुणस्थान) उत्कृष्ट चारित्र से सम्बद्ध है। चारित्रमोहनीय के क्षयोपशमरूप-गुणस्थानरूप है। -संपादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy