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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३१९ गुणस्थान की अपेक्षा बादर-स्थूल कषाय उदय में आता है, दसवें गुणस्थान से पहले वह सूक्ष्म नहीं होता। इसलिए इन दोनों गुणस्थानों के साथ 'बादर' शब्द लगाया गया . निवृत्ति-बादर : अध्यवसायों के असंख्यात भेद होने से निवृत्ति शब्द यहाँ भेद' अर्थ में विवक्षित है। जो इस अष्टम गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं तथा जो प्राप्त कर रहे हैं, एवं जो आगे प्राप्त करेंगे, उन सब जीवों के अध्यवसाय-स्थानों अर्थात्-परिणामभेदों को 'निवृत्ति' कहते हैं। वे भेद संख्यात, असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के तुल्य हैं; चूंकि आठवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त-प्रमाण है और अन्तर्मुहूर्त के असंख्यात समय होते हैं। जिनमें से प्रथमसमयवर्ती त्रैकालिक (तीनों काल के) जीवों के अध्यवसाय भी. असंख्यात लोकाकाश-प्रदेशों के तुल्य हैं। इसी प्रकार दूसरे, तीसरे आदि प्रत्येक समयवर्ती कालिक जीवों के अध्यवसाय भी गणना में असंख्यात लोकाकाश-प्रदेशों के बराबर हैं। असंख्यात. संख्या के भी असंख्यात प्रकार हैं। इसलिए एक-एक समयवर्ती कालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समयों में वर्तमान त्रैकालिक 'जीवों के अध्यवसायों की संख्या सामान्यतया एक-सी (असंख्यात) होते हुए भी वे दोनों असंख्यात संख्याएँ भिन्न-भिन्न हैं। यद्यपि अष्टम गुणस्थान के प्रत्येक समयवर्ती कालिक जीव अनन्त ही होते हैं, तथापि इन दोनों के अध्यवसाय असंख्यात ही होते हैं; क्योंकि भिन्न-समयवर्ती जीवों की परिणाम विशुद्धि तो एक सरीखी नहीं होती, इतना ही नहीं, एक समयवर्ती अनेक जीवों के अध्यवसायों में भी परस्पर पृथक्-पृथक् होने से उनमें न्यूनाधिक (असंख्यात-गुणी कम-अधिक) विशुद्धि होती है। गोम्मटसार के अनुसार समसमयवर्ती अनेक जीवों के अध्यवसाय समान शुद्धि वाले होने से सदृश भी माने जाते हैं, विसदृश भी। इसीलिए समवायांग वृत्ति में निवृत्ति बादर का अर्थ किया गया है-"जिस गुणस्थान में सम-समय-प्रतिपन्न जीवों के अध्यवसायों में भेद (निवृत्ति) हो, तथा निवृत्ति (भेद) प्रधान बादर-स्थूल सम्पराय यानी कषाय हो, उसे निवृत्ति बादर कहते हैं।" एतदर्थ यह विसदृश परिणाम-विशुद्धि का गुणस्थान है। प्रत्येक समय के असंख्यात अध्यवसायों में से १. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी जी म.) पृ. २८ । (ख) ता. १०/९/१९९२ के 'श्रमणोपासक' में प्रकाशित 'गुणस्थान की अवधारणा' लेख से, पृ. ३७ (ग) निर्भेदेन वृत्तिः निवृत्तिः।-षट्खण्डागम भा. १ धवला, पृ. १८३ २.. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन (पं. सुखलाल जी), पृ. १६ (शेष पृष्ठ ३२० पर) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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