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________________ मोह से मोक्ष तक की यात्रा की १४ मंजिलें ३१३ उन्हीं का दूसरा नाम 'संयत' है। अर्थात्-जो महान् आत्मा तीन करण और तीन योग से (करना, कराना और अनुमोदन, मन-वचन-काया से) नवकोटि से सर्व-सावद्यव्यापारों का सर्वथा त्याग करके यावज्जीव सामायिकादि चारित्र अंगीकार करे, पंचमहाव्रत धारण करें, वह संयत मुनि, अनगार या निर्ग्रन्थ हैं। ऐसा त्यागी संयत सकल संयम के रोकने वाले प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम (अभाव) होने से इस गुणस्थान में पूर्ण संयम (सर्वविरति). तो हो चुकता है, किन्तु संज्वलन आदि कषायों के तीव्र उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाले दुःस्वप्नादि व्यक्त और अव्यक्त प्रमाद के रहने से सराग अवस्थावर्ती इस गुणस्थान को प्रमत्तसंयत कहते हैं। अर्थात्-संयत भी जब तक प्रमाद का सेवन करते हैं, तब तक वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। उनकी इस अवस्था-विशेष को प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। इस छठे गुणस्थान में संयम में मल उत्पन्न करने वाला ही प्रमाद लिया गया है, संयम का विनाशक प्रमाद नहीं। क्षणस्थायी अत्यन्त मन्द प्रमाद संयम विनाशक नहीं होता, क्योंकि सकल संयम को रोकने वाले प्रत्याख्यानावरण कषाय के अभाव से, (प्रत्याख्यानावरण के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदय क्षय से, तथा आगामीकाल में उदय में आने योग्य उन्हीं सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभावरूप उपशम से-क्षयोपशम से) संयम का विनाश नहीं पाया जाता। आशय यह है कि कषाय यदि मन्द हों, अथवा यतनापूर्वक चर्या या प्रवृत्ति हो तो उचित निद्रा तथा उचित भोजनादि प्रवृत्ति की गणना प्रमाद में नहीं होती। कषाय जब तीव्ररूप धारण करते हैं, तभी उन्हें यहाँ (पृष्ठ ३१२ का शेष) पापकर्मों को केवल सुनना और सुनकर भी उन कामों के करने से पुत्रादि को नहीं रोकना। जैसे-रेवती द्वारा किये गए पापकृत्यों को महाशतक श्रावक नहीं रोक सके (उपासकदशांग) (३) संवासानुमति-अपने पुत्रादि सम्बन्धियों द्वारा पापकार्यों में '. प्रवृत्त होने पर न तो पापकर्मों को सुनना और न उनकी प्रशंसा करना, सिर्फ साथ में · रहना। जैसे राजा प्रदेशी अपने पुत्र और सूर्यकान्ता रानी के साथ रहते थे। १: (क) कर्मग्रन्थ भा. २, (मरुधरकेसरीजी, पं. सुखलाल जी), पृ. २६, १५ क्रमशः। (ख) जैनसिद्धान्त (पं. कैलाश चन्द्र जी), पृ.७९ (ग) वत्तावत-पमादे को वसइ, पमत्त-संजदो होदि। सयल-गुण-सील-कलिओ, महव्वइ चित्तलायरणो। -गोम्मटसार (जीवकांड) गा. ३३ (घ) जैन दर्शन (न्या. न्या. न्यायविजय जी) से, पृ. ११२ - (ङ) सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात, इन . पांचों में से दो ही चारित्र इस गुणस्थान में होते हैं। परिहारविशुद्धि कदाचित् . . होता है, पर उसकी विवक्षा नहीं होती। -संपादक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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