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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २८७ • संज्वलन-कषायत्रिक (संज्वलन के क्रोध, मान और माया) में नौ और संज्वलन-लोभ में दस गुणस्थान होते हैं। अतः इन चारों कषायों का बन्धस्वामित्व सामान्यरूप से तथा विशेषरूप से उन गुणस्थानों के समान है। अर्थात्-उनका बन्धस्वामित्व जैसा बन्धाधिकार में गुणस्थानों की अपेक्षा बतलाया गया है, उसी प्रकार समझना चाहिए। यानी सामान्य से १२० तथा गुणस्थान क्रमानुसार पहले से नौवें गुणस्थान तक क्रमशः ११७, १०१, ७४, ७७, ६७, ६३, ५९, ५८ और २२ प्रकृतियों का समझना चाहिए। संज्वलन लोभ में एक से लेकर १० गुणस्थान होते हैं। अतः इसमें नौवें गुणस्थान तक तो पूर्वोक्त संज्वलनत्रिक के अनुसार बन्ध-स्वामित्व है और दसवें गुणस्थान में १७ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए। (७,८) ज्ञानमार्गणा और दर्शनमार्गणा द्वारा बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा तीन अज्ञानों में बन्धस्वामित्व-निरूपण ज्ञानमार्गणा में ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) दोनों का ग्रहण किया गया है। ज्ञान के ५ भेद हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय और केवलज्ञान। इसी प्रकार अज्ञान के तीन भेद हैं-मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान (अवधि अज्ञान)।,अज्ञानत्रिक में आदि के दो या तीन गुणस्थान होते हैं। इसमें तीसरा गुणस्थान मानने के पीछे अभिप्राय यह है कि तीसरे गुणस्थान में वर्तमान जीव की दृष्टि सर्वथा शुद्ध या अशुद्ध नहीं होती; किन्तु कुछ शुद्ध और कुछ अशुद्ध तथा किसी अंश में अशुद्धमिश्र होती है। इस मिश्रदृष्टि के अनुरूप ज्ञान भी उन जीवों का मिश्ररूप-किसी अंश में ज्ञानरूप और किसी अंश में अज्ञानरूप माना जाता है। मगर इस प्रकार के मिश्रज्ञान से युक्त जीवों की गणना दृष्टि में अशुद्धि की अधिकता के कारणं अज्ञान की मात्रा अधिक और ज्ञान की मात्रा कम होने से अज्ञानी जीवों में की जाती है। इस अपेक्षा से पहले और दूसरे दो गुणस्थानवी जीव तो अज्ञानी हैं ही, तीसरे गुणस्थानवर्ती जीव को भी अज्ञानी ही समझना चाहिए। - दो या तीन गुणस्थान मानने का एक और कारण है-जो जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान में आता है, तब उसे मिश्रदृष्टि में मिथ्यात्वांश अधिक होने से अशुद्धि विशेष होती है। और जब सम्यक्त्व छोड़कर तीसरे गुणस्थान में आता है, तब मिश्रदृष्टि में सम्यक्त्वांश अधिक होने से शुद्धि-विशेष रहती है। इसीलिए अज्ञानत्रिक में दो या तीन गुणस्थान माने जाते हैं। -तृतीय कर्मग्रन्थ १. (क) वेदतिगाइय तिय तिय कसाय नव दु चउ पंच गुणा॥ १६॥ संजलण तिगे नवदस लोभे चउ अजइ दुति अनाणतिगे। - बारस अचक्खु-चक्खुसु पढमा अहखाइ चरमचऊ॥ १७॥ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. १६, १७ -तृतीय कर्मग्रन्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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