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________________ २७० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रकृतियों को कम करने से ६७ प्रकृतियाँ रहती हैं। इनमें मनुष्यद्विक तथा उच्चगोत्र इन तीन प्रकृतियों को मिलाने से तीसरे और चौथे गुणस्थान वाले सप्तमनरकवासी जीवों के ७० प्रकृतियों का बन्ध होता है। पूर्व-पूर्व नरक से उत्तर-उत्तर नरक में अध्यवसायों की शुद्धि इतनी कम हो जाती है कि पुण्य-प्रकृतियों के बन्धक परिणास पूर्व-पूर्व नरक से उत्तर-उत्तर नरक में अल्प से अल्पतर हो जाते हैं। यद्यपि आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक जीव प्रति समय किसी न किसी गति का बन्ध कर सकता है, किन्तु नरकगति के योग्य अध्यवसाय प्रथम गुणस्थान तक, तिर्यञ्चगति के योग्य अध्यवसाय आदि के दो गुणस्थान तक तथा देवगति के योग्य अध्यवसाय आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक एवं मनुष्यगति के योग्य अध्यवसाय चौथे गुणस्थान तक होते हैं। नारक जीव नरकगति और देवगति का बन्ध नहीं कर सकते। अतः तीसरे चौथे गुणस्थान में सातवें नरक के नारक मनुष्यगति-योग्य बन्ध कर सकते हैं। किन्तु वे जीव आयुष्य का बन्ध तो पहले गुणस्थान में ही कर लेते हैं। अन्य गुणस्थानों में नहीं। अन्य गुणस्थानों में तत्योग्य अध्यवसाय न होने से आयुष्य बन्ध नहीं करते। पहले और चौथे गुणस्थान में सातवें नरक के जीव के मनुष्यगति' प्रायोग्य बन्द के लायक परिणाम न होने से मनुष्यप्रायोग्य बन्ध नहीं होता। सातवें नरक के जीव मनुष्यायु को बांधते नहीं हैं, किन्तु उसके अभाव में तीसरे-चौथे गुणस्थान में मनुष्यायु बन्ध के बिना भी मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी का बन्ध हो सकता है, जो कि भवान्तर में उदय में आता है।३ ।। १. २४ प्रकृतियाँ ये हैं-अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, न्यगोधपरिमण्डल; सादि, वामन; कुब्जसंस्थान, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच कीलक संहनन, अशुभविहायोगति, नीचगोत्र, स्त्रीवेद, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्धि, उद्योत, तिर्यंचगति और तिर्यञ्चानुपूर्वी, यों कुल २४ प्रकृतियों का बन्ध प्रथम-द्वितीय गुणस्थान तक होता है, क्योंकि ये २४ अनन्तानुबन्धी कषायोदय निमित्तक हैं, जिनका उदय पहले दूसरे गुणस्थान तक होता है। -संपादक २. (क) अजिण मणुयाउ ओहे सत्तमिए नरदुगुच्च विणु मिच्छे। इग नवई सासणे, तिरियाउ नपुंस चउवजं ॥६॥ अणचउवीस-विरहिया सत्तर दुगुच्चा य सयरिमीस दुगे। सत्तरसउ ओहि मिच्छे पजतिरिया विणु जिणाहारं ॥७॥ -तृतीय कर्मग्रन्थ (ख) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ६,७ विवेचन पृ. २१ से २४ तक। ३. (क) तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ७ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. २४, २५ (ख) नर-द्विकस्य नरायुषा सह नाऽवश्यं प्रतिबन्धो, यदुत यत्रैवायुर्बध्यते. तत्रैव गत्यानुपूर्वीद्वयमपि तस्याऽन्यदाऽपि बन्धात्।। -तृतीय कर्मग्रन्थ अवचूरिका पृ. १०१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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