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________________ २६८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अविरतसम्यग्दृष्टि नारकजीव के ७२ प्रकृतियों का बन्ध : क्यों और कैसे ? चौथे अविरति-सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकजीव तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर सकते हैं, क्योंकि सम्यक्त्व के सद्भाव में तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है, तथा मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव के आयुकर्म का बन्ध न होने के नियम से जिस मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता था, उसका चौथे गुणस्थान में बन्ध होने से मिश्रगुणस्थान में बंध होने वाली ७० प्रकृतियों में उक्त दो प्रकृतियों (तीर्थंकरनाम और मनुष्यायु) को मिलाने से चतुर्थ गुणस्थानवर्ती नारकजीव ७२ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। नारकजीव न तो पुनः नरकायु का बन्ध कर सकते हैं, न ही देवायु का। तथा तिर्यंचायु का बन्ध भी अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय होने पर होता है। अनन्तानुबन्धी कषायोदय प्रथम, द्वितीय गुणस्थान तक ही होता है, आगे के गुणस्थानों में नहीं। अतः चतुर्थ गुणस्थानवी नारक जीवों के तिर्यंचायु का बन्ध भी नहीं हो सकता। बन्ध हो सकता है सिर्फ मनुष्यायु का। सप्तनरकभूमिस्थित नारकों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व-प्ररूपणा नरकभूमिस्थित नारकों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व प्ररूपणा इस प्रकार है-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा, इन ३ नरकों में सामान्यतया तथा चारों गुणस्थानों की अपेक्षा से प्ररूपित नारकजीवों के बन्धस्वामित्व के समान ही बान्धस्वामित्व समझना चाहिए। जैसे नरकगति में प्रथम गुणस्थान में १००, दूसरे में ९६, तीसरे में ७०, चौथे में ७२ प्रकृतियों का बन्ध माना गया है। ठीक उसी प्रकार रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा तथा बालुकाप्रभा, इन तीन नरकों में रहने वाले नारक जीवों के अपने-अपने योग्य गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। किन्तु पंकप्रभा, धूमप्रभा और तमःप्रभा नरकों में सम्यक्त्व-प्राप्ति होने पर भी क्षेत्र के प्रभाव से और तथाप्रकार के अध्यवसाय का अभाव होने से तीर्थकर नामकर्म का बंध नहीं होता है; क्योंकि आगमों में कहा गया है-'पहले नरक से आया हुआ जीव चक्रवर्ती हो सकता है, दूसरे नरक से आया हुआ जीव वासुदेव हो सकता है और तीसरे नरक तक से आया हुआ जीव तीर्थकर हो सकता है, चौथे नरक से आया जीव केव्ली और पंचम नरक से आया जीव महाव्रती साधु एवं छठे नरक से आया हुआ जीव देशविरत हो सकता है और सातवें नरक से आया हुआ जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है, मगर देशविरतित्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। अतः पंकप्रभादि तीन नरकभूमियों के तीर्थकर नामकर्म अबन्ध होने से १०० प्रकृतियों का बन्धं समझना १. तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ५, विवेचन (मरुधरकेसरी जी) पृ. १७, १८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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