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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २४५ केवलद्विक में निजद्विक (केवलज्ञान और केवलदर्शन) दो ही उपयोग हैं। क्षायिक सम्यक्त्व और यथाख्यातचारित्र में तीन अज्ञान को छोड़कर शेष नौ उपयोग होते हैं। देशविरति में तीन ज्ञान और तीन दर्शन, ये ६ उपयोग होते हैं। मिश्रदृष्टि में वे ही उपयोग अज्ञानमिश्रित होते हैं। - केवलद्विक में केवलज्ञान और केवलदर्शन दो ही उपयोग मानने का कारण यह है कि मतिज्ञान आदि शेष दश उपयोग छाद्मस्थिकों के होते हैं, केवलियों के नहीं। क्षायिक सम्यक्त्व के समय मिथ्यात्व का अभाव ही होता है। यथाख्यातचारित्र के समय ग्यारहवें गुणस्थान में मिथ्यात्व तो है, पर सत्तागत है, उदयमान नहीं है। इस कारण इन दो मार्गणाओं (क्षा० यथा०) में मिथ्यात्वोदय-सहभावी तीन अज्ञान नहीं होते। सो इस प्रकार-उक्त दो मार्गणाओं में छद्मस्थ-अवस्था में पहले चार ज्ञान तथा तीन दर्शन ये ७ उपयोग और केवलि-अवस्था में केवलज्ञान और केवलदर्शन, ये दो उपयोग होते हैं। देशविरति में मिथ्यात्व का उदय न होने के कारण तीन अज्ञान नहीं होते और सर्वविरति की अपेक्षा रखने वाले मनःपर्यायज्ञान और केवलद्विक, ये तीन उपयोग भी नहीं होते। शेष ६ उपयोग होते हैं। छह उपयोगों में अवधिद्विक का परिगणन इसलिए किया गया है कि. उपासकदशांग सूत्र आदि में श्रावकों के अवधिज्ञान-उपयोग का वर्णन मिलता है। मिश्रदृष्टि में छह उपयोग वे होते हैं, जो देशविरति में होते हैं, किन्तु इतनी विशेषता है कि मिश्रदृष्टि में तीन ज्ञान मिश्रित होते हैं, शुद्ध नहीं। मतिज्ञान मतिअज्ञान-मिश्रित, श्रुतज्ञान श्रुत-अज्ञान-मिश्रित और अवधिज्ञान विभंगज्ञान-मिश्रित होता है। यह मिश्रितज्ञानत्व इसलिए माना जाता है कि मिश्रदृष्टि-गुणस्थान के समय अर्ध-विशुद्ध दर्शन-मोहनीय-पुंज का उदय होने के कारण परिणाम कुछ शुद्ध कुछ अशुद्ध यानी मिश्र होते हैं। शुद्धि की अपेक्षा से मति आदि को ज्ञान और अशुद्धि की अपेक्षा से अज्ञान कहा जाता है। - अनाहारक मार्गणा में मनःपर्यायज्ञान और चक्षुर्दर्शन को छोड़कर, शेष १० उपयोग होते हैं। चार ज्ञान, चार संयम, उपशम-सम्यक्त्व, वेदक (क्षायोपशमिक) १. (क) चउरिदिअसंनि दु अनाण-दसण-इगि-बि-ति-थावरि अचक्छु। . तिअनाण दंसणदुगं अनाण-तिग-अभवि मिच्छ-दुगे॥३२॥ (ख) केवलदुगं नियदुगं नव तिअनाण विणु खइय-अहक्खाए। दसण-नाण-तिगं देसि मीसि अन्नाण-मीसं तं॥ ३३॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ , गा० ३२-३३ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० १०७ से १०९ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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