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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २३३ तीन गुणस्थान मानने वाले आचार्य का आशय यह है कि तीसरे गुणस्थान के समय अज्ञान को ज्ञानमिश्रित कहा है, किन्तु मिश्रज्ञान को ज्ञान मानना उचित नहीं, उसे अज्ञान ही कहना चाहिए; क्योंकि शुद्ध सम्यक्त्व हुए बिना चाहे कैसा भी ज्ञान हो, वह अज्ञान ही है। यदि सम्यक्त्व के अंश के कारण तीसरे गुणस्थान में ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान ही मान लिया जाएगा, तो दूसरे गुणस्थान में भी सम्यक्त्व का अंश होने के कारण ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान ही मानना पड़ेगा, जो कि इष्ट नहीं है, क्योंकि अज्ञानत्रिक में दो गुणस्थान मानने वाले भी, दूसरे गुणस्थान में मति आदि को अज्ञान मानते हैं। सिद्धान्तवादी के सिवाय किसी भी कार्मग्रन्थिक विद्वान को दूसरे गुणस्थान में मति आदि को ज्ञान मानना इष्ट नहीं है। इस कारण सासादन गुणस्थान की तरह मिश्र गुणस्थान में भी मति आदि को अज्ञान मानकर अज्ञानत्रिक में तीन गुणस्थान मानना युक्तियुक्त है। ___ अचक्षुर्दर्शन तथा चक्षुर्दर्शन में बारह गुणस्थान इसलिए माने जाते हैं कि दोनों दर्शन क्षायोपशमिक हैं। इसलिए क्षायिकदर्शन के समय अर्थात् १३वें, १४वें, गुणस्थान में उनका अभाव हो जाता है, क्योंकि क्षायिक और क्षायोपशमिक ज्ञानदर्शन का साहचर्य नहीं रहता। यथाख्यातचारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान पाये जाते हैं, क्योंकि यथाख्यात चारित्रमोहनीय कर्म का उदय रुक जाने पर प्राप्त होता है। और मोहनीय कर्म के उदय का अभाव ग्यारहवें से चौदहवें तक चार गुणस्थानों में रहता है। मनःपर्यायज्ञान में प्रमत्तसंयत (छठे) आदि सात गुणस्थान पाये जाते हैं, क्योंकि इस ज्ञान की प्राप्ति के समय सातवाँ और प्राप्ति के बाद अन्य गुणस्थान होते हैं। सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय संयम प्रमत्तसंयत (छठे) आदि चार गुणस्थानों में माने जाते हैं, क्योंकि वीतरागभाव होने के कारण ऊपर के गुणस्थानों में इन सरागसंयमों की संभावना नहीं है। १. (क) वेय-तिकसाय नव दस, लोभे चउ अजय दु ति अनाण-तिगे। बारस अचक्खु-चक्खुसु ,पढमा अहक्खाइ चरम चउ॥२०॥ कर्मग्रन्थ भा. ४ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. २० विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ८१ से ८४ तक (ग) मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रदृष्टेरज्ञानबाहुल्यं सम्यक्त्वाधिकस्य पुनः सम्यग्ज्ञान बाहुल्यमिति-गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. ६८६ टीका .. इन दोनों में से पहला मत गोम्मटसार में उल्लिखित तथा समर्थित है। (घ) 'मिस्संमि वा मिस्सा' इत्यादि मतानुसार मिश्र गुणस्थान में अज्ञान, ज्ञान मिश्रित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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