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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-१ २२५ जैसे-गतिमार्गणा में भावगति, इन्द्रियमार्गणा में भावेन्द्रिय, वेद-मार्गणा में भावभेद, संयम मार्गणा में भाव-संयम तथा लेश्यामार्गणा में भावलेश्या आदि इष्ट हैं।१. ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा में अज्ञान और असंयम क्यों? एक प्रश्न और-१४ मार्गणाओं में ज्ञानमार्गणा और संयममार्गणा में ज्ञान और संयम का ही ग्रहण करना चाहिए, अज्ञान और असंयम या संयमासंयम का अन्तर्भाव या ग्रहण कैसे हो सकता है? इसका समाधान यह है कि जैसे-पत्रोचित कार्य नहीं करने वाले पुत्र को अपुत्र कहा जाता है, वैसे ही यहाँ मिथ्यात्वयुक्त ज्ञान को ज्ञान का कार्य न करने के कारण अज्ञान कहा गया है। अथवा जैसे आम्रवन में रहने वाले नीम वृक्षों को भी आम्रवन संज्ञा प्राप्त हो जाती है, वैसे संयम के अन्तर्गत असंयम तथा संयमासंयम का भी अन्तर्भाव तथा संयम (मिथ्यासंयम) संज्ञा प्राप्त हो जाती है। मार्गणास्थानों से प्रेरणा : हेयोपादेयविवेक उपर्युक्त बासठ मार्गणा-स्थानों द्वारा विविध अवस्थाओं और रूपों से युक्त जीवों का सम्यक् सर्वेक्षण-अन्वेषण अगले प्रकरण में किया जाएगा। इस प्रकार संसार के समस्त जीवों की विविध स्वाभाविक-वैभाविक अथवा कर्मोपाधिक अवस्थाओं के सर्वेक्षण से प्रत्येक मुमुक्षु तथा जिज्ञासु आत्मार्थीजन अपनी हेय, ज्ञेय और उपादेय अवस्था का विचार करके बन्धयुक्त पर्याय से संवर, निर्जरा और मोक्ष के सोपानों पर चढ़ते हुए क्रमशः आगे बढ़ सकेंगे। १. 'इमानि' इत्यनेन भाव-मार्गणा-स्थानानि प्रत्यक्षीभूतानि निर्दिश्यन्ते। नार्थ. मार्गणास्थानानि। तेषां देश-काल-स्वभाव-विप्रकृष्टानां प्रत्यक्षतानुपपत्तेः। -धवला १/१, १, २/१३१ २. (क) ज्ञानानुवादेन कथमज्ञानस्य ज्ञानप्रतिपक्षस्य सम्भवः? इति चेन्न, मिथ्यात्व समवेत-ज्ञानस्यैव ज्ञानकार्यकारणाद् अज्ञानव्यपदेशाच्च, पुत्रस्यैव पुत्रकार्याकरणादपुत्रव्यपदेशवत्। (ख) आम्रवनान्तस्थ-निम्बानामाम्रवन-व्यपदेशवन्मिथ्यात्वादीनां सम्यक्त्वव्यपदेशो न्याय्यः। ' (ग) जदि एवं तो एदिस्से मग्गणाए संजमाणुवाद-ववदेसो न जुज्जदे। ण, अंब निंबवणं पाधण्ण-पदमासेज संजमाणुवाद-ववदेस-जुत्तीए॥ -धवला १/१, १, ११५/३५३, वही १/१,१, १४४/३९५, वही ४/१,४, १३८/२८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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