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________________ २०६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ विभिन्नताओं का समावेश करने और बोध कराने हेतु प्रत्येक मार्गणा के अवान्तर भेदों का भी कथन करके उनको लेकर होने वाली विभिन्नताओं की प्ररूपणा की गई है। (१) गति-मार्गणा के भेद और उनका स्वरूप गति-मार्गणा के ४ भेद हैं-(१) देवगति, (२) मनुष्यगति, (३) तिर्यंचगति और (४) नरकगति। इन चारों गतिमार्गणाओं के लक्षण इस प्रकार हैं (१) देवगति-देवगति नामकर्म के उदय से होने वाली पर्याय (शरीराादि का विशिष्ट आकार-प्रकार), जिससे यह देव है' ऐसा व्यवहार किया जाए, उसे देवगति कहते हैं। देवगति नामकर्म के उदय होने पर वे दिव्यजन नाना प्रकार की बाह्य विभूति से द्वीप, समुद्रादि अनेक स्थानों पर क्रीड़ा करते हैं, विशिष्ट ऐश्वर्य का अनुभव करते हैं, दिव्य वस्त्राभूषणों की समृद्धि तथा स्वदेह की सहज कान्ति से जो देदीप्यमान रहते हैं, वे देव कहलाते हैं। ऐसे विभिन्न प्रकार के देवों की गतिगम्यस्थान-देवगति है। . (२) मनुष्य गति-जो मन के द्वारा नित्य ही हेय, ज्ञेय, उपादेय, तत्त्व-अतत्त्व, आप्त-अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का मनन-चिन्तन करते हैं, विचारपूर्वक कार्य करने में निपुण हैं, उत्कृष्ट विकासशील चेतना तथा मानस के धारक हैं, विवेकशील होने से न्याय-नीतिपूर्वक आचरण करते हैं, वे मानव-मनुष्य हैं और 'यह मनुष्य हैं', इस प्रकार का व्यवहार कराने वाली मनुष्यगति नामकर्म की उदयजन्य पर्याय को मनुष्यगति कहते हैं। ___ (३) तिर्यञ्चगति-जो मन-वचन-काय की कुटिलता-मायात्व को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं; जो निकृष्ट अज्ञानी हैं, तिरछे गमन करते हैं, जिनके जीवन में अत्यधिक पाप की बहुलता पाई जाती है; उन्हें तिर्यञ्च कहते हैं। तिर्यश्चगति नामकर्म के उदय से होने वाली जिस पर्याय से जीव तिर्यश्च कहलाता है, उसे तिर्यञ्च गति कहते हैं। उपपाद जन्म वालों (देवों और नारकों) तथा मनुष्यों को छोड़कर शेष सब एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक तिर्यश्चगति वाले हैं। (४) नरकगति-जिनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में तथा परस्पर में प्रीति (रति) नहीं है, जो भावों से हिंसादि कार्यों में रत-संलग्न रहते हैं; जो पूर्व वैरभाव स्मरण करके एक दूसरे से लड़ते-भिड़ते रहते हैं, दुःखी होते हैं, दुःख भी देते हैं, उन्हें नारक कहते हैं। नरकगति नामकर्म के उदय से जिस पर्याय को प्राप्त कर जीव नारक कहलाता है, उसे नरकगति कहते हैं।२ . १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ विवेचन (मरुधरकेसरी) से भावांशग्रहण पृ. १०५ २. वही भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरी) से साभार उद्धृत पृ. १०६-१०७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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