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________________ १९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ गुणस्थानों की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के कर्मबन्ध का विचार गुणस्थानों की अपेक्षा यदि संज्ञी-पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के कर्मबन्ध का विचार किया जाए तो पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्त-संयत गणस्थान तक सात या आठ कर्मों का, आयुकर्म का बन्ध न होने से आठवें और नौवें गुणस्थान में सात कर्मो का, दसवें गुणस्थान में छह कर्मों का (मोहनीयबन्ध के सिवाय) तथा ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। - संज्ञी पंचेन्द्रिय-पर्याप्त के सात, आठ, छह और एक; ये चार बन्धस्थानं कहे. गए हैं, किन्तु सत्तास्थान तीन हैं-जो आठ, सात और चार कर्मों के हैं।१ . कर्मों का सत्तास्थान आठ कर्मों का सत्तास्थान पहले से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान-पर्यन्त पाया जाता है। इसकी स्थिति अभव्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है, क्योंकि अभव्य की कर्म परम्परा की जैसे आदि नहीं है, वैसे अन्त भी नहीं है। जबकि भव्य की अपेक्षा से अनादि-सान्त है, क्योंकि उसकी कर्मपरम्परा की आदि तो नही है, परन्तुं अन्त अवश्य होता है। सात कर्मों का सत्तास्थान केवल बारहवें गुणस्थान, में होता है; क्योंकि इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सिवाय शेष सात कर्मों का समावेश है। मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ही बारहवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है। बारहवें गुणस्थान (पृष्ठ १९१ का शेष) जिन प्रकृतियों का उदय एक साथ पाया जाए उनके समुदाय को उदयस्थान तथा जिन प्रकृतियों की उदीरणा एक साथ पाई जाए, उनके समुदाय को उदीरणास्थान कहते हैं। -कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन गा. ८ (पं. सुखलालजी) पृ. २७ (घ) देखें-चतुर्थ कर्मनथ की गाथा ८: सत्तट्ठ छेगबंधा संतुदया सत्त-अट्ठ-चत्तारि। सत्तट्ठ-छ-पंच-दुगं, उदीरणा सन्नि-पज्जत्ते॥८॥ का विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. २७ से २९ (ङ) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ८ का विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. ९० अत्र चायं तात्पर्यार्थ:-मिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः। आयुर्बन्धाभावादपूर्वकरणा निवृत्तिबादरयोश्च सप्तानां बन्धः, (तृतीय गुणस्थाने ह्यायुकर्मबन्धाभावात् सप्तानां बन्धोज्ञेयः), सूक्ष्मसम्पराये षण्णां बन्धः उपशान्तमोहादिषु (त्रिषु) एकस्याः प्रकृतेर्बन्धः। -चतुर्थ कर्मनन्ध स्वोपज्ञटीका पृ. १२५ ... For Personal & Private Use Only W . www.jainelibrary. १. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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