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________________ १८६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ इसका समाधान यह है कि कार्मण तथा औदारिकमिश्र काययोग तभी होता है, जब केवली भगवान् केवलि - समुद्घात करते हैं। प्रशमरति में कहा गया है - केवलि - समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणकाययोग होता है, जबकि दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिकमिश्र काययोग तथा पहले और आठवें समय में औदारिक काययोग होता है। पर्याप्त दशा में वैक्रियमिश्र काययोग तब होता है, जब कोई वैक्रियलब्धिधारक मुनि आदि वैक्रियशरीर बनाते हैं । १ आहारक काययोग के अधिकारी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य ही हैं। जब चतुर्दश पूर्वधारी मुनि आहारक शरीर बनाते हैं, तब आहारक शरीर बनाने और उसे त्यागने के समय आहारकमिश्र काययोग और उस शरीर को धारण करने के समय आहारक काययोग होता है। औदारिक काययोग तो समस्त पर्याप्त मनुष्यों और तिर्यञ्चों को होता है तथा वैक्रिय काययोग समस्त देवों और नारकों को होता है। अतः इन सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त देव, नारक, मनुष्य और तिर्यञ्चों के जीवस्थानों में १५ योग माने हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के औदारिक शरीर माना गया है, क्योंकि उनमें जैसे मन और वचन की लब्धि नहीं है, वैसे ही वैक्रियादि लब्धि भी नहीं है। इसलिए उनमें वैक्रिय काययोग आदि भी सम्भव नहीं हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय-पर्याप्त जीवों में औदारिक काययोग और (असत्यामृषा भाषा-व्यवहार भाषा) वचन योग; ये दो योग होते हैं क्योंकि ये सभी तिर्यञ्च जीव हैं, अतः इनके शरीर औदारिक काययोग-निष्पन्न होते हैं। रसना होने के कारण इनमें व्यवहार भाषारूप वचन योग भी सम्भव है। बादर एकेन्द्रिय जीवों के पर्याप्त अवस्था में औदारिक काययोग तो होता ही है, उसके साथ-साथ बादरं वायुकाय की दृष्टि से वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्र १. (क) केवलि - समुद्घात की स्थिति ८ समय-प्रमाण है। इन आठ समयों में केवली भगवान् आत्मप्रदेशों को समग्र लोकव्यापी बनाते हैं। (ख) औदारिक- प्रयोक्ता प्रथमाऽष्टम-समययोरसाविष्टः । मिश्रौदारिक- प्रयोक्ता, सप्तम - षष्ठ- द्वितीयेषु ॥ २७६ ॥ कार्मणशरीर - योगी चतुर्थके पंचये तृतीये च । समय-त्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२७७ ॥ (ग) वैक्रियमिश्रं संयतादेवैक्रियं प्रारभमाणस्य कार्मणकाययोगौ तु केवलिनः समुद्घातावस्थायाम्। प्राप्यते । Jain Education International - प्रशमरति औदारिकमिश्र - चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका, पृ. १२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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