SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कार्मणशरीर नामकर्म के उदय से कर्मवर्गणाओं (कर्मसमूह.) से उत्पन्न होने वाले काय को कार्मणकाय और उसके द्वारा होने वाले योग को कार्मण काय-योग. कहते हैं। अर्थात-औदारिकादि अन्य शरीरवर्गणाओं के बिना मिर्फ. कर्म मे उतार हुए वीर्य (शक्ति) के निमित्त से आत्मप्रदेश-परिस्पन्दरूप जो प्रयत्न होता है, वह कार्मण काययोग कहलाता है। चौदह जीस्थानों में योगत्रय-प्ररूपणा. चौदह जीवस्थानों में मुख्य तीन योगों की प्ररूपणा इस प्रकार की गई है-संज्ञी . पंचेन्द्रिय जीवों के मनोयोग, वचनयोग और काययोग ये तीनों ही होते हैं। द्वीन्द्रिय से . लेकर असंज्ञीपंचेन्द्रिय तक के जीवों में वचनयोग और काययोग होते हैं; तथा एकेन्द्रिय जीवों में सिर्फ काययोग ही होता है। ___चौदह जीवस्थानों में पन्द्रह योगों की प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि उपर्युक्त छह अपर्याप्त (सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त) जीवस्थानों में कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग होते हैं। कारण यह है कि सभी प्रकार के जीवों को अन्तराल (विग्रह) गति में तथा जन्म-ग्रहण करने के प्रथम समय में कार्मणयोग ही होता है, क्योंकि उस समय औदारिकादि स्थूल शरीरों का अभाव होने से योग-प्रवृत्ति केवल कार्मण शरीर से होती है। उत्पत्ति के दूसरे समय से लेकर स्वयोग्य-पर्याप्तियों के पूर्ण होने तक मिश्र काययोग सम्भव है। अर्थात्-अपर्याप्तदशा में कार्मण काययोग के बाद औदारिक मिश्र काययोग ही होता है। ___ अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नररक जीव गर्भित हैं। इसलिये उनमें कार्मण काययोग, औदारिकमिश्र काययोग और वैक्रियमिश्र काययोग ये तीन योग माने गए हैं। अर्थात्-मनुष्यतिर्यंचों की अपेक्षा से औदारिकमिश्र काययोग और देव-नारकों की अपेक्षा से वैक्रियमिश्र काययोग होते हैं तथा इन दोनों में कार्मणकाययोग समान है। १. कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ६०,६१ २. (क) अपजत्त छक्कि कम्मुरलमीस जोगा अपज्जसंनिसु ते। स विउव्व-मीसएसु तणु-पज्जेसुं उरलमन्ने। (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन गा. ४ (मरुधरकेसरीजी), पृ. ६२, ६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy