SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १७३ आठ प्ररूपणीय विषयों का स्वरूप इन सब का संक्षेप में लक्षण इस प्रकार है (१) गुणस्थान-ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों में शुद्धि-अशुद्धि की तरतमता (न्यूनाधिकता) से होने वाली जीव की विभिन्न अवस्थाओं को 'गुणस्थान' कहते हैं। (२) उपयोग-चेतना शक्ति का बोधरूप व्यापार, जो जीव का असाधारण लक्षण है, तथा जिसके द्वारा वस्तु का सामान्य और विशेष स्वरूप या वस्तुस्थिति जानी जाती है उसे उपयोग कहते हैं। (३) योग-मन, वचन, काया के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्तिमूलक परिस्पन्द; अर्थात्-आत्मा के प्रदेशों में हलचल या कम्पन योग है। (४) लेश्या-आत्मा का सहज स्वरूप स्फटिक के समान निर्मल है, परन्तु कृष्ण, नील आदि अनेक रंग वाले पुद्गलविशेषों के सान्निध्य (प्रभाव) से जो आत्मा के विविध परिणाम (अध्यवसाय) होते हैं, अथवा कषाय और योम से आत्मा में उत्पन्न होने वाली विविध निकृष्ट-उत्कृष्ट मनोवृत्तियों को लेश्या कहते हैं। (५) बन्ध-आत्म-प्रदेशों के साथ राग-द्वेष, कषाय या मिथ्यात्वादि पंचविध कारणों से नीर-क्षीर के समान कर्मपुद्गलों का सम्बन्ध (संश्लेष) होना, बन्ध है। . (६) उदय-पूर्व में बंधे हुए कर्मदलिकों का विपाकानुभव (फलभोग) प्राप्त होना 'उदय' कहलाता है। यह विपाकानुभव (फलोदय) कभी तो अबाधाकाल (सत्ता में संचित पड़े हुए कमों की कालावधि) पूर्ण होने पर होता है, और कभी नियत अबाधाकाल पूर्ण होने से पहले भी अपवर्तना आदि करणों से होता है। (७) उदीरणा-जिन बद्ध कर्मदलिकों का उदयकाल न आया हो, अथवा पूर्वबद्ध कर्म अभी उदय में न आए हों, उन्हें प्रयत्न-विशेष से या अमुक निमित्तविशेष से खींचकर बन्धकालीन स्थिति से हटा कर, उदयावलिका में प्रविष्ट करना 'उदीरणा' है। (८) सत्ता-बन्धन या संक्रमणकरण से जो कर्मपुदगल जिस कर्म (बन्ध) रूप में परिणत हुए हों, उनका 'निर्जरा' या संक्रमण आदि से रूपान्तर न होकर ज्यों का त्यों तत्-स्वरूप में पड़े (बने) रहना 'सत्ता' है। (पृष्ठ १७२ का शेष) (ख) चउदस-जिय-ठाणेसु चउदस- गुणठाणगाणि जोगा य। । उवओग-लेस-बंधुदओदीरण-संत अट्ठपए ॥१॥ -वही, सोमविजयसूरि कृत टब्बा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy