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________________ १७० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ (२) किन्तु करण - अपर्याप्त के विषय में यह बात नहीं है। वे पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी होते हैं, और अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले भी । तात्पर्य यह है कि चाहे पर्याप्त नामकर्म का उदय हो, चाहे अपर्याप्त नामकर्म का, पर जब तक करणों - शरीर, इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों की पूर्णता न हो, तब तक जीव करण - अपर्याप्त कहे जाते हैं। (३) जिनके पर्याप्त नामकर्म का उदय हो, और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, पहले नहीं, वे लब्धि - पर्याप्त हैं। (4) किन्तु करण-पर्याप्तों के लिए यह नियम नहीं है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके ही मरते हैं । जो लब्धि - अपर्याप्त है, वे भी करण पर्याप्त होते ही हैं, क्योंकि आहारपर्याप्ति बन चुकने के बाद कम से कम शरीरपर्याप्ति बन जाती है, तभी से जीव करणपर्याप्त माने जाते हैं। यह भी नियम है कि लब्धि अपर्याप्त जीव भी कम से कम आहार, शरीर और इन्द्रिय, इन तीन पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना मरते नहीं। इसका सारांश यह है कि शरीररूप करण के पूर्ण करने से करण - पर्याप्त और इन्द्रिय रूप करण पूर्ण न करने से करण - अपर्याप्त है। इसलिए शरीर पर्याप्ति से लेकर मनः पर्याप्ति - पर्यन्त पूर्वपूर्व-पर्याप्ति के पूर्ण होने पर करण पर्याप्त और उत्तर- उत्तर की पर्याप्ति के पूर्ण न होने से करण-अपर्याप्त कह सकते हैं। किन्तु जीव जब स्व-योग्य सम्पूर्ण पर्याप्तियों को पूर्ण कर लेता है, तब उसे करण - अपर्याप्त नहीं कहते, अपितु करण पर्याप्त ही कहते हैं। यह नियम है कि सभी प्राणी आगामी भव की आयु को बाँध कर ही मरते हैं, बिना बाँधे नहीं और आयु भी तभी बांधी जा सकती है, जब आहार, शरीर, इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण बन चुकी हों । लब्धि- अपर्याप्त जीव भी आदि की तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करके ही आगामी भव की आयु बांधता है। जो आगामी आयु को नहीं बांधता . और अबाधाकाल को पूर्ण नहीं करता, वह मर ही नहीं सकता। १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. २ का परिशिष्ट 'घ' (पं. सुखलाल जी ), पृ.४०, ४१ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. २ का विवेचन ( मरुधरकेसरीजी) (ग) करणानि शरीराक्षादीनि । - लोकप्रकाश सर्ग. ३, श्लोक १० (घ) यस्मादागामि-भवायुर्बध्वा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः तच्चाहार - शरीरेन्द्रिय-पर्याप्ति - . - नन्दीसूत्र, मलयगिरिटीका, पृ. १०५ पर्याप्तानामेव बध्यत इति । (ङ) लोकप्रकाश सर्ग ३ श्लोक ३१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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