SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 156
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अग्नि की तरह दबा दिया जाता है। इसलिए धवला में इसका लक्षण दिया गया हैकर्मों की उदय-उदीरणा को रोक देना-दबा देना उपशमन है। बद्ध कर्मों के विद्यमान (सत्ता में) रहते हुए भी उन्हें उदय में आने के लिए अक्षम बना देना उपशम है। अर्थात् बद्धकर्म की वह अवस्था, जिसमें उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना सम्भव न हो, किन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संक्रमण की सम्भावना हो, वह उपशमन है। जिस प्रकार अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना, जिससे वह अपना काम न कर सके, वैसे ही उपशमन क्रिया से बद्धकर्म को इस प्रकार दबा देना, जिससे वह अपना फल न दे सके। किन्तु जैसे राख का आवरण हटते ही, अंगारे जलाने का काम करने लगते हैं, वैसे ही उपशमभाव के दूर होते ही, उपशान्तकर्म पुनः उदय में आकर अपना फल देना शुरू कर देते हैं। अतः उपशम का फलितार्थ है-कुछ देर के लिए पूर्व-बद्ध कर्म का शान्त होकर बैठ जाना। जैसेमलिन जल को कुछ देर निश्चल रखने पर उसका मैल बर्तन की तली में नीचे शान्त होकर बैठ जाता है, और उसके ऊपर वाला जल सर्वथा निर्मल शुद्ध हो जाता है। इसी प्रकार कुछ काल पर्यन्त निश्चलरूप से दृढभाव से समता, शमता आदि की साधना करने पर कर्ममल कुछ देर के लिए अन्तस्तल में (अवचेतन मन में) शान्त होकर बैठ जाता है, अर्थात्-निश्चल होकर फलदान से विरत हो जाता है। जितने काल तक वह इस प्रकार सुषुप्त अवस्था में नीचे अन्तस्तल में बैठा रहता है, उतने काल तक जीव के परिणाम पूर्णतः शुद्ध तथा निर्मल हो जाते हैं। किन्तु जिस प्रकार बर्तन के हिल जाने पर नीचे जम कर बैठा हुआ मैल ऊपर आ जाता है और जल को पुनः मलिन कर देता है, उसी प्रकार उक्त कर्मों का मूर्छाकाल बीत जाने पर वह, कर्म पुनः सचेष्ट हो जाता है और जीव के परिणामों पर अपना प्रभाव डालने लगता है। फलतः जीव के परिणाम पुनः पूर्ववत् मलिन होने लगते हैं। उपशमनकरण का भी बहुत बड़ा महत्व : क्यों और कैसे ? उपशमन का भी जीव को बन्ध से मुक्ति की ओर ले जाने में बहुत बड़ा हाथ है। क्योंकि जितनी देर तक कर्ममल उपशम-अवस्था में शान्त रहा-दबा रहा, या उदय १. (क) मोक्ष प्रकाश, पृ. १८, (ख) पंचम कर्मग्रन्थ , प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री) (ग) अनुयोग द्वार पृ. १२६ (घ) धर्म और दर्शन (आचार्य देवेन्द्र मुनि), पृ. ९७,९८ (ङ) धवला पु. सं.४ भा. १० पृ. ६४५ . (च) कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १०७, १०८ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy