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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-२ १२३ • इससे स्पष्ट है कि पुरुषार्थ द्वारा उदीरणा आदि करके बद्ध कर्म में परिवर्तन किया जा सकता है, कर्म परतंत्रता को आत्मस्वतंत्रता में बदला जा सकता है, दुर्भाग्य की ओर ले जाने वाले कर्म को सौभाग्य की ओर पलटा जा सकता है। उदीरणा : कब और कैसे? प्रत्येक बंधा हुआ कर्म निश्चित रूप से उदय में आएगा ही, ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि कर्म बंधने के पश्चात् आलोचना, प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप, प्रायश्चित, तप, त्याग आदि करके कर्मक्षय कर दिया, तो वह कर्म नष्ट हो जाता है। फिर उसके उदय में आने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि कर्म का क्षय नहीं किया है तो बद्ध कर्म की कालमर्यादा पूर्ण होने से पहले, (सत्ता में कर्म रहे तभी) उस कर्म को शीघ्र क्षय करने की इच्छा हो तो स्वेच्छा से क्षमा, रत्नत्रयादि साधना, समभावपूर्वक तीव्र वेदना, असाता आदि सहन कर लेने से उदयकाल परिपक्व न होते हुए भी उन कर्मों की उदीरणा कर ली जाती है। उदीरणा के माध्यम से उन कर्मों को खींचकर उदय में लाया जाता है। उदीरणा का हेतु और रहस्य उदीरणा का रहस्यार्थ यह है कि जिन पूर्व-संचित कर्मों का अभी तक उदय नहीं हुआ है, उनको बलपूर्वक नियत समय से पूर्व भोगने के लिए पकाकर फल देने के योग्य कर देते हैं, उसे उदीरणावस्था कहते हैं। गोम्मटसार में "अपक्व कर्मों के पाचन (पकाने) को उदीरणा कहा गया है।" आशय यह है कि अबाधाकाल पूर्ण होने पर भी जो कर्मदलिक बाद में उदय में आने वाले हैं, उन्हें विशेष प्रयत्न से खींचकर उदय में आए हुए कर्मदलिकों के साथ मिला देना और भोग लेना या लम्बे समय के बाद उदय में आने वाले कर्मों को तत्काल उदय में लाकर भोग लेना उदीरणा है। जो कर्म समय पाकर उदय में आने वाले हैं, यानी अपना फल देने वाले हैं, उनका प्रयत्न-विशेष से या किसी निमित्त से समय से पूर्व ही फल देकर नष्ट हो जाना, उदीरणा है। ____ आजकल ऐसे यंत्र भी वैज्ञानिकों ने आविष्कत किये हैं. जिनसे भविष्य में होने वाले किसी रोग या व्याधि का पता लग जाता है। यदि शरीर में कोई विकार रोग के १. कर्म तेरी गति न्यारी भाग १ से भावांश ग्रहण, पृ. १७५ २. (क). जैनदर्शन में आत्म विचार (डॉ. लालचन्द्र जैन), पृ. १९६ . (ख) गोम्मटसार (क.) जी. त. प्र. टीका, गाथा ४३९ . (ग) मोक्षप्रकाश पृ. १६, १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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