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________________ ११६ · कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ निष्कर्ष यह है कि प्रतिसमय एक समय-प्रबद्ध कर्म बंधता है और एक ही समय-प्रबद्ध उदय में आता है। एक समय में बंधा द्रव्य अनेक समयों में उदय में आता है। तथैव एक समय में उदय में आने वाला द्रव्य अनेक समयों में बंधा हुआ होता है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि वर्तमान एक समय में प्राप्त जो सुख-दुःख आदिरूप फल है, वह किसी एक समय में बंधे विवक्षित कर्म का फल नहीं कहा जा सकता; बल्कि संख्यातीत काल में बंधे अनेक कर्मों का मिश्रित एक रस होता है। फिर भी उस एक रस में निषेक मुख्यता उसी निषेक की होती है, जिसका अनुभाग सर्वाधिक होता है। पुण्य या पाप के उदय में भी परिवर्तन सम्भव प्रत्येक जीव निरन्तर पुण्य या पाप का बन्ध करता रहता है। अतएव प्रत्येक संसारी जीव के न्यूनाधिकरूप से कभी पुण्य का और कभी पाप का उदय रहता है। जिसे आज पाप का उदय है उसे पाप का ही रहेगा, ऐसा कोई नियम नहीं है। निषेक रचना में न जाने किस समय पुण्य के तीव्र अनुभाग वाला कोई निषेक उदय में आ जाए। बन्ध और उदय की समानता-असमानता कहाँ-कहाँ? मन-वचन-काया से जीव जैसी भी कुछ प्रवृत्ति करता है, वैसी ही प्रकृति वाले कर्म प्रदेश उसके साथ बंध को प्राप्त होते हैं, अन्य प्रकार के नहीं। साथ ही उसकी वह प्रवृत्ति तीव्र या मन्द जैसी भी रागादि कषायों से युक्त होती है, डिग्री टु डिग्री उतना ही तीव्र या मन्द अनुभाग उस कर्म-प्रकृति में पड़ता है, न्यून या अधिक नहीं। इसी प्रकार स्थिति भी उस प्रकृति में डिग्री टु डिग्री उतनी ही पड़ती है, न्यूनाधिक नहीं। जिस प्रकार बंध के लिये कहा, उसी प्रकार उदय के विषय में समझना। जिस समय जिस किसी भी प्रकृति का तथा उसके साथ जितने भी अनुभाग का उदय होता है, जीव को उस समय वैसी ही और डिग्री टु डिग्री उतनी ही तीव्र या मन्द परिणाम-युक्त प्रवृत्ति करनी पड़ती है। उससे भिन्न प्रकार की अथवा उसकी अपेक्षा किंचित् भी कम या अधिक नहीं। ___ इस प्रकार बंधपक्ष और उदयपक्ष इन दोनों में ही यद्यपि भावर्म और द्रव्यकर्म की परस्पर अन्वय-व्यतिरेक-व्याप्ति देखी जाती है, तदपि मुमुक्षु के कल्याण का द्वार बन्द नहीं होता, क्योंकि भाव के अनुसार डिग्री टु डिग्री बन्ध होता है और उदय के १. कर्मसिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. ९३ २. वही, पृ. ९३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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