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________________ ११४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ भूल तुरंत सुधार लेते हैं, जबकि अज्ञानी निर्बलजन प्रत्येक क्षुद्र निमित्त के वशवर्ती होकर अपना स्वत्त्व खो देते हैं और संयोगों के प्रबल प्रवाह में इधर से उधर तृणवत् टक्कर खाते रहते हैं। ज्ञान में शक्ति है, परन्तु किस ज्ञान में? आत्मा के स्वरूप के, अपने स्वत्व के ज्ञान में-सम्यग्ज्ञान में। इन्द्रिय ज्ञान या भौतिक विज्ञान में कोई शक्ति नहीं है। क्योंकि इनकी शक्ति सिर्फ स्थूल सृष्टि पर प्रवृत्त हो सकती है। जिस ज्ञान का कार्यक्षेत्र केवल स्थूल दृष्टि से सीमाबद्ध हो गया है, जिस ज्ञान का प्रभाव आन्तरिक सूक्ष्मप्रदेश तक पहुँच नहीं सकता, उस ज्ञान को परम पुरुषों ने केवल व्यवहार-विद्या कहा है। सत्यज्ञान की-परमार्थविद्या की कसौटी कर्म के उदय से प्रकट. होने वाले निमित्त से अनुपरंजित रहने तथा आत्मा को बंधन में डालने वाले परिणामों की धारा' में नहीं बहने में है। आत्मा के परम पुरुषार्थ को कर्मबन्ध न करने या कर्म शत्रु से लड़कर परास्त करने के क्षेत्र में ही अवकाश है। इसी में पुरुषार्थ की सिद्धि है। संसार-परिभ्रमण के कार्यकारण भाव की शृंखला को तोड़ डालने की गुप्तविद्या सिर्फ आत्मा के अनुपरंजित परभावों से निर्लिप्त रहकर आत्मभावों (भावविशेष) में रही हुई है। इष्ट-अनिष्ट या शुभ-अशुभ प्रसंगों की उपस्थिति के समय आत्मा के जो अशुद्ध परिणाम होते हैं, वे ही तो भावकर्म हैं, और इस परिणाम के तारतम्य के अनुसार नये कर्म आकर्षित होते हैं। इस प्रकार भावकर्म से द्रव्यकर्म और द्रव्यकर्म के उदयकाल में उपस्थित होने वाले निमित्त में आसक्ति से-भावकर्म से फिर द्रव्यकर्म, यों आत्मा का संसार चक्र घूमता रहता है। द्रव्यकर्म के उदयकाल में उपस्थित होने वाले आत्मा के वैभाविक परिणामों में नहीं फंसना, यही संसार के बन्धन को शिथिल करने का और अन्त में, उसे तोड डालने का एक ही अमोघ उपाय है। उदय की प्रक्रिया के विषय में कर्मविज्ञान की प्ररूपणा भिन्न-भिन्न समयों में उपार्जित, किन्तु एक ही काल में उदय में आने योग्य कर्म जब उदय में आता है, तब समस्त बद्धकर्म के अनुभाग (रस) की एकत्र जो मात्रा होती है, इतना फल वह एक साथ देता है। अर्थात्-ये सब अंश एक ही साथ निष्पन्न होते हैं। एक काल में उपार्जित कर्म अनेक समयों में और अनेक समय में बांधे हुए कर्म एक समय में भी उदय में आते हैं। जब भिन्न-भिन्न अनेक प्रसंगों में उपार्जित (बद्ध) कर्म एक समय में उदय में आते हैं, तब वे अत्यन्त तीव्र फल देते हैं। कई प्रसंगों में तो उन महापुरुषों की स्थिति इतनी हद तक पेचीदा हो जाती है कि जगत की पामरदृष्टि उन्हें पामर, पतित, अघोरी आदि दृष्टियों से देखती है, जानती है। १. कर्म अने आत्मानो संयोग, पृ. ११, ३९ से ४१ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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