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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ-१ १०५ सकता है। उदयकाल-पर्यन्त उसकी रचना में आत्मा के योग और कषाय के निमित्त से परिवर्तन हुआ करता है। और वैसे निमित्त के अभाव में उसका मूल स्वरूप कर्मबन्ध होते समय जैसा होता है, वैसा कायम रहता है। जो जागृत आत्माएँ कर्म की रचना का तथा उसके परिवर्तन का स्वरूप यथार्थरूप से समझ सकते हैं, वे सत्ता के दौरान उपयोग (मनोयोग) पूर्वक (Consciously) उसका यथेष्ट स्वरूप रच सकते हैं। आत्मा जब अपने निर्माण की लगाम अपने हाथ में लेता है, तब वह जैसा बनना चाहता है, वैसा अपना स्वरूप बना सकता है। वह अपने योग और कषाय की धारा स्वच्छन्दता, अनुपयोगिता और अप्रतिबन्धता के रूप में नहीं बहने देता, अपितु स्वयं जिस प्रकार का फल इष्ट हो, वैसा ही परिणाम प्रकट करने के लिए अपनी जीवनधारा अभिज्ञरूप से, संयम और उपयोग पूर्वक बहाता है। निर्बल और पामर आत्माओं की योग प्रवृत्ति असमीक्ष्यता पूर्वक (बिना विचार के), या दैवाधीनतापूर्वक जैसे-तैसे बेढंगी चलती रहती है। इसके विपरीत सबल सशक्त आत्माएँ उस शक्ति को ऐसे मार्ग में नियोजित करते हैं कि जहाँ से उन्हें इष्ट परिणाम प्राप्त होता ही है।२ सत्ता में पड़ा हुआ कर्म भोगा नहीं जाता यह सत्य है कि जो बद्ध कर्म सत्ता में पड़े हैं, उनका परिज्ञान छद्मस्थ को सहसा प्रायः नहीं होता, और जब सत्ता में पड़ा हुआ वह कर्म उदय में आ जाता है, तब बाजी हाथ से चली जाती है, उक्त कर्म को अशुभ से शुभ में बदलने की, या कर्म निर्जरा के विविध तप, त्याग, व्रत, नियम आदि उपायों द्वारा क्षय करने की। अतः एक उपाय यह है कि ज्ञाता-द्रष्टा बनकर अथवा आत्मौपम्यभाव से युक्त होकर प्रत्येक मानसिक, वाचिक या कायिक प्रवृत्ति करे और उस कर्म के उदय में आने पर समभावपूर्वक शान्ति और धैर्य के साथ उसका फल भोगे। • जिस प्रकार आम्रवृक्ष पर लगे हुए सभी आम युगपत् नहीं पकते, बल्कि धीरेधीरे प्रतिदिन कुछ-कुछ ही पकते हैं और व्यक्ति के लिये भोज्य बनते हैं। उसी प्रकार बद्धकर्म के सभी प्रदेश भी युगपत् उदय में नहीं आते, बल्कि धीरे-धीरे प्रतिसमय कुछ न कुछ प्रदेश या एक-एक निषेक ही उदय में आता है और जीव को फल देकर झड़ जाता है। - जिस प्रकार बालकन्या किसी की दृष्टि में कामवासना जागृत नहीं कर पाती, परन्तु युवती हो जाने पर वही कामुक व्यक्तियों में कामवासना जागृत कर देती है, १. कर्म अने आत्मानो संयोग (श्री अध्यायी) पृ. ३६, ३७ . २. वही, पृ. ३७, ३८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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