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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १ ९१ प्रकृतिबन्ध और अनुभागबन्ध में अन्तर प्रकृतिबन्ध और अनुभागबन्ध, इन दोनों में सूक्ष्म अन्तर यह है कि प्रकृतिबन्ध का कार्य-क्षेत्र सिर्फ कर्मवर्गणा का उसकी प्रकृति के अनुसार आत्मा के साथ सम्बन्ध जोड़ने का है; जबकि अनुभाग बन्ध का कार्य है - इन कार्मण स्कन्धों में रही हुई फलदान शक्ति का विस्तार करने का और तदनुसार आत्मा को शुभ-अशुभ रसास्वाद (फलभोगानुभव) कराने का है । कषाय सहित होने पर ही कर्म में फलदान शक्ति का प्रादुर्भाव जब कोई आत्मा कषाय रहित होकर सिर्फ योग से कोई प्रवृत्ति करता है तब स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध को कोई अवकाश न रहने से योग मात्र से उपार्जित प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध केवल सातावेदनीय कर्म को ग्रहण करता है। परन्तु जब वे योगत्रय कषायों द्वारा अनुरंजित होते हैं, तब अनेक प्रकृतियों का बन्ध विविध अनुभाग और स्थिति से युक्त हुए बिना नहीं रहता । पूर्वोक्त बन्धद्वय से जनित विविध अवस्थाएँ आत्मा के साथ बंधी हुई कर्म प्रकृति जहाँ तक फलदान करने के लिए तत्पर (फलोन्मुख ) नहीं होती, वहाँ तक का काल अबाधाकाल कहलाता है। उक्त अबाधाकाल के दौरान बांधे हुए कर्म निष्क्रिय एवं मूर्च्छित - से होकर सत्ता में पड़े रहते हैं। उस दौरान वे कुछ भी फल नहीं देते। उक्त अनुदयकाल में आत्मा अपनी स्वसत्ता द्वारा पूर्वबद्ध कर्मप्रकृति में अपकर्षण (अपवर्तन - अल्पत्व), उत्कर्षण (उद्वर्तन=आधिक्य), संक्रमण ( सजातीय एक प्रकृति का अन्य उत्तरप्रकृतिरूप में संक्रान्त होने) अथवा उदयाभावी क्षय ( फल दिये बिना कर्मों का छूट जाना) कर सकता है। परन्तु एक बार जब वह कर्म फलप्रदान करने के लिए उदयमान (उद्यत ) हो जाता है, तब अपना सम्पूर्ण फल उसकी नियत स्थिति और अनुभाग के सहित `दिये बिना नहीं रहता। और उस उदयमान कर्म की नियत स्थिति पूरी होने तक प्रतिसमय उस-उस प्रकृति का उदय आता ही रहता है। जहाँ तक आत्मा में कषायभाव रहता है, वहाँ तक स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध रहेगा । किन्तु ऐसा नहीं होता कि जैसा कर्म बांधा है, वैसा ही उदय में आकर फल देता रहे; इसी हेतु से जैन कर्मविज्ञान ने बन्ध से सम्बन्धित अवस्थाओं में न्यूनाधिकता पूर्वोक्त अवस्थाओं द्वारा सूचित की है। १. कर्म अने आत्मानो संयोग से, भाव ग्रहण, पृ. २२ से २४ तक For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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