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________________ कर्मबन्ध की विविध परिवर्तनीय अवस्थाएँ - १ ८९ तीसरी बात - सभी संसारी जीवों को एक जैसा कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि सबका मानसिक, वाचिक, कायिक योग (व्यापार) एक समान नहीं होता। योगों में तरतमभाव होने से प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध में भी तरतमभाव (न्यूनाधिकता ) आता है । कषायरहित मन-वचन-काय की चंचलता (प्रकम्प या आन्दोलन ) द्वारा आत्मा में उपस्थित होने वाला स्फुरण, सामान्यतया योग कहलाता है। योग से प्रदेशबन्ध और प्रकृतिबन्ध होता है, इस कर्मशास्त्रीय नियम के अनुसार योगप्रवृत्ति के निमित्त से आत्मा प्रतिसमय अनन्त कर्म परमाणुओं को आकर्षित करता है। यदि वहाँ योग की अल्पता हो तो तदनुसार कर्म परमाणुओं का आगमन ( आकर्षण या आस्रवण) भी अल्प होता है, और योग अति प्रमाण में हो तो कर्मग्रहण भी अधिक होता है। अर्थात् त्रिविध योग प्रवृत्ति से होने वाले कर्मास्रव के प्रमाण को कर्म - प्रदेश कहते हैं। अल्पमात्रा में आने वाले योगास्रव से कर्मप्रदेश की न्यूनता और अधिक मात्रा में आने वाले योगास्रव से कर्मप्रदेश की अधिकता होती है। . प्रदेशबन्ध के बाद एक समय में प्रबद्ध हुई कर्मवर्गणा आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों में तथा उनके उत्तरकर्मों में बंट जाती है। अर्थात् प्रदेशरूप में बद्ध वह कर्मवर्गणा उस-उस प्रकृति के रूप में परिणमित हो जाती है। जैसे- आहाररूप में ग्रहण किये हुए परमाणु रस, रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि, मेद, शुक्र आदि धातुओं के रूप में परिणमित हो जाते हैं, उसी प्रकार योग द्वारा आकृष्ट हुई कर्मवर्गणा का मूल और उत्तर कर्म - प्रकृति के रूप, उस-उस कर्मवर्गणा के स्वभावानुसार परिणमन हो जाता है। ऐसा नहीं होता कि एक समय-प्रबद्ध कर्मवर्गणा एक सरीखे सात भागों में बंट जाए; परन्तु उक्त प्रदेशबद्ध कर्मवर्गणा में जो विशिष्ट स्वभाव की होती है, प्रायः तद्रूप परिणमन होता है, और बाकी की प्रकृतियों में सिर्फ न्यून अंश मिलता है अर्थात् समय-प्रबद्ध कर्म-वर्गणा भी प्रायः किसी विशिष्ट प्रकृतिरूप में परिणत होती है, अन्य अवशिष्ट प्रकृतियों में उसका थोड़ा-सा हिस्सा जाता है। इतना विशेष है कि • जो प्रकृतियाँ युगलरूप हैं, जैसे हास्य - शोक, रति- अरति आदि, वहाँ दो में से सिर्फ़ . एक को ही हिस्सा मिलता है। कोई भी कर्म एक साथ हास्य और शोक, रति और अरति, दोनों में एक साथ परिणत नहीं होता । तथैव तीन वेदों (कामभेदों) में से मात्र एक वेदरूप में ही परिणमन होता है। मतलब यह कि जो कर्म प्रकृतियाँ परस्पर विरुद्ध हैं, वहाँ उनमें से एक को हिस्सा मिलता है। आयुष्यकर्म की प्रकृति का सारी जिन्दगी में सिर्फ एक ही बार बन्ध होता है।" 1 १. (क) जैनदर्शन ( न्या. न्या. न्यायविजय जी), पृ. ४५४ (ख) कर्म अने आत्मानो संयोग (श्री अध्यायी), पृ. २२,२३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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