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________________ रसबन्ध बनाम अनुभागबन्ध : स्वरूप और परिणाम ४५५ है। ईख या नीम को खूब उबालने पर रस का जो १/३ (एक तिहाई) भाग रह जाता है, उसी तरह कर्म का तीन ठाणिया रसबन्ध होता है। इसमें दो ठाणिया से कई गुना अधिक फल देने की शक्ति होती है। ईख या नीम के रस को कड़ाही में अत्यन्त ताप देकर उबालने पर जो १/४ (एक चौथाई) अत्यन्त गाढ़ा रस बचता है, उसे चार ठाणिया (चतुःस्थानिक) रस कहते हैं। कर्म का भी जब ऐसा अत्यन्त गाढ़ सम्बन्ध होता है, तब उसे चार ठाणिया रसबन्ध-अर्थात्-अत्यन्त तीव्र या अत्यन्त मन्द अनुभागबन्ध-कहते हैं। इसमें सबसे अधिक फल देने की शक्ति होती है। इसे दूसरी तरह से समझिये-एक वैद्य के पास सिरदर्द के चार रोगी आए। एक के हल्का-सा दर्द है। उसे एक गोली देने से ही सिरदर्द मिट गया। दूसरे रोगी का सिरदर्द उससे कुछ अधिक था। उसके निवारणार्थ वैद्य ने तेज पावर की गोली दी, जिससे रोगी की पीड़ा मिट गई। तीसरा रोगी कई दिनों से सिरदर्द से पीड़ित था। उसका दर्द बीच-बीच में कम हो जाता फिर बढ़ जाता। उसे वैद्य ने एक तेज दबा कई दिनों तक सेवन करने को दी। और चौथे रोगी को तो सिरदर्द इतना जटिल और हठीला था कि कितनी ही दवाइयाँ खाने पर भी रोग जाता नहीं था, उसे वैद्य ने अत्यन्त कड़वी दवा देकर लम्बे समय तक उपचार किया। इसी प्रकार एक ठाणिया से लेकर चार ठाणिया तक का रसबन्ध समझना चाहिए।२ रसबन्ध में कषाययुक्त लेश्या के कारण असंख्य-स्थान, रसबन्ध में कारणभूत रागादि-परिणाम (अध्यवसाय), कषायमोहनीय के उन-उन न्यूनाधिक रसोदय के संवेदन से, लेश्या से. ज्ञानावरणीयादि कर्म के उदय और योग आदि की विचित्रता से गर्भित एक प्रकार का आत्मा का परिणामरूप है। एक आचार्य ने कहा है-“कषाय के आधार से स्थितिबन्ध और लेश्या के आधार से रसबन्ध होता है।" वस्तुतः लेश्या के साथ दसवें गुणस्थान तक कषाय होता ही है। उसमें भी समान स्थिति असंख्य कषाय अध्यवसायों से बंधती है। एक अध्यवसाय में तरतमता वाले असंख्य लेश्यापरिणाम होते हैं। इसी कारण एक अध्यवसाय के अनुसार बंधने वाली कर्मस्थिति में लेश्या की तरतमता के कारण असंख्य रसबन्ध के स्थान हैं। ___ एक कषायोदय-स्थान में रहे हुए लेश्या के असंख्य-परिणामों को समझने के लिए एक दृष्टान्त लीजिए-गहरे काले रंग (Dark Black) की अनेक वस्तुएँ होने पर भी एक के कालेपन में कुछ चमक (Light) अधिक है, दूसरे के कालेपन में उससे कुछ कम चमक है। यों तीव्र काला रंग भी अनेक तरतमताओं से युक्त दिखाई देता है। जैसे-एक सरीखे सफेद रंग के मोतियों में पानी (तेज) की अपेक्षा से अनेक तरतमताएँ जैसे जौहरी लोग परख लेते हैं, वैसे ही कषाययुक्त अध्यवसाय में भी १. रे कर्म ! तेरी गतिन्यारी से, पृ. ५६ २. वही, भावांशग्रहण, पृ. ५७ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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