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________________ प्रकृतिबन्ध : मूल प्रकृतियाँ और स्वरूप २०३ आठकर्म-प्रकृतियों का आत्मा के आठ गुणों पर असर पूर्वोक्त आठ कर्मों (प्रकृतियों) का आत्मा के गुणों पर असर होने से आत्मा की कैसी स्थिति होती है ? इसे समझ लें। आत्मा में निहित ज्ञान और दर्शन ये दो मुख्य गुण हैं। ज्ञान का अर्थ है-वस्तु का विशेषरूप से बोध, और दर्शन का अर्थ है - सामान्य रूप से बोध। आशय यह है कि ज्ञान और दर्शन, ये दोनों ही ज्ञान (बोध) स्वरूप हैं, फिर भी वस्तु के विशेष बोध को ज्ञान और सामान्य बोध को दर्शन कहा जाता है। ज्ञान और दर्शन के कारण आत्मा में तीनों काल की समस्त वस्तुओं का विशेष और सामान्यरूप से सम्यक् बोध करने की शक्ति है। फिर भी आज छद्मस्थ और परोक्षज्ञानी जीवों को भूत और भविष्यकाल की वस्तुओं को जानने की बात तो दूर रही, वर्तमान काल की वस्तुओं में भी अमुक ही वस्तुओं का सामान्य - विशेषरूप से बोध होता है, वह भी इन्द्रियों और मन की सहायता से । इसका क्या कारण है? इसका कारण है - ज्ञानावरणीय और दर्शनावरण कर्म-प्रकृति । ये दोनों प्रकार के कर्म आत्मा के ज्ञान-दर्शनगुण को प्रकट नहीं होने देते। ये आत्मा की ज्ञान-दर्शन शक्ति को दबा देते हैं, ढक देते हैं। फिर भी ये दोनों कर्म आत्मा के ज्ञान-दर्शन - गुण को सर्वथा दबा नहीं सकते। जिस प्रकार सूर्य बादलों से आवृत होने पर भी बादलों के छिद्रों से थोड़ा प्रकाश पड़ता है, उसी प्रकार आत्मारूपी सूर्य पर कर्मरूपी बादलों का आवरण होने पर भी क्षयोपशमरूपी छिद्रों द्वारा स्वल्पमात्रा में ज्ञान दर्शनगुणरूप प्रकाश प्रगट होता है । आत्मा का तीसरा गुण है - अनन्त अव्याबाध सुख । इस गुण के प्रताप से किसी भी भौतिक वस्तु की अपेक्षा के बिना आत्मा में स्वाभाविक सहज सुख रहा हुआ है, फिर भी संसारी जीव वास्तविक आत्म-सुख से वंचित हैं, अतएव सच्चे माने में दुःखी रहते हैं। जो यत्किंचित् सुख प्राप्त होता है, वह भी भौतिक वस्तुओं द्वारा इसमें कारण है - वेदनीय कर्म प्रकृति । आत्मा में चौथा गुण है- स्वभाव - रमणता रूप अनन्त चारित्र । आत्मा में केवल अपने स्व-भाव में रमण करने का गुण है। मोहनीय कर्म द्वारा इस गुण का अभिभव हो गया है, जिससे आत्मा भौतिक वस्तुएँ प्राप्त करना, सुरक्षा करना, सजीव-निर्जीव परभावों पर अहंकार - ममकार से ग्रस्त होकर रागद्वेष या कषाय करता रहता है। अतः स्वभावरमणता से कोसों दूर हो जाता है। आत्मा का पांचवाँ गुण अक्षय स्थिति या अविनाशित्व है। इस गुण के कारण आत्मा के जन्म, जरा, मृत्यु आदि नहीं हैं, फिर भी आयुष्यकर्म के कारण आत्मा को जन्म-मरण करना पड़ता आत्मा का छठा गुण - अरूपित्व है। आत्मा में इस गुण के कारण रूप, रस, गन्ध . और स्पर्श नहीं हैं, फिर भी आत्मा अभी शरीरधारी होने से उसमें जो कृष्ण, श्वेत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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