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________________ १५४ कर्म-विज्ञान : भाग ४ : कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या (७) पुण्यानुबन्धी पुण्य व्यक्ति को स्वर्गादि सद्गति प्राप्त कराता है, लौकिक सुख-सुविधाएँ तथा तदनुकूल सामग्री भी प्राप्त होती है। परन्तु यदि वह व्यक्ति उनमें आसक्त हो जाता है, या अधिकाधिक भोगविलास की वांछा करता है तो पुण्यानुबन्धी पुण्य के बदले वही बन्ध पापानुबन्धी पुण्य के रूप में भी परिणत हो सकता है। यदि वह व्यक्ति दीर्घदृष्टि से विचार करके प्राप्त सुखसामग्री पर आसक्त नहीं होता और भोग-विलास की वांछा नहीं करता है, तो उसका पुण्यानुबन्धी पुण्य का वह बन्ध उसके उज्ज्वल भविष्य के द्वार खोलने वाला तथा परम्परा से मोक्ष प्राप्त कराने वाला बन जाता है। शालिभद्र को पुण्यानुबन्धी पुण्य के फलस्वरूप अखूट वैभव और सुख सामग्री प्राप्त हुई थी, फिर भी उस पवित्र आत्मा ने इस पर आसक्ति नहीं रखी और उस अपार ऋद्धि सम्पदा एक झटके में त्याग कर दिया। निकाचित बंधे हुए शुभकर्मों का फल भोगते समय सावधान ! निकाचितरूप से बंधे हुए अशुभ या शुभ कर्मों का फल आत्मा को भोगना ही पड़ता है। परन्तु शुभकर्मों का फल भोगते समय अहंकार, गर्व, मद, आसक्ति, लोभ आदि न आएँ, समभाव रखा जाए तो भोग लेने के बाद वे सर्वथा छूट जाते हैं। परन्तु अशुभकर्मों के निकाचित-बन्ध का फल भोगते समय हाय-हाय करे, विलाप करे आर्तध्यान करे तो नये कर्म और बँध जाते हैं। निकाचित रूप से बद्ध अशुभ (पाप) कर्मों का फल हजारों-लाखों वर्षों तक भोगना पड़ता है, फिर भले ही वह हाय-तोबा मचाए या विलाप करे। लाखों में एकाध व्यक्ति ऐसा निकलता है, जो निकाचित रूप से बँधे हुए पापकर्मों का फल परीषह सहकर, क्षमादि दशविध धर्माचरण करके, कठोर तपश्चर्या करके, धर्मक्रिया भी पवित्र अध्यवसाय से तन्मयतापूर्वक करके, भोग लेता है। इन पवित्र उपायों से कदाचित् निकाचित रूप से बंधे हुए कर्म नष्ट हो जाएँ : परन्तु ऐसा होता है, क्वचित् ही। कर्मविज्ञान द्वारा साधक को सावधान करने के लिए बन्धचतुष्टयावस्था बन्ध की इन चारों अवस्थाओं-डिग्रियों पर विचार करके साधक को प्रतिक्षण सावधान रहना चाहिए। कर्मविज्ञान ने इसीलिए कर्मबन्ध के इन चार मापकों पर इतना सुन्दर चिन्तन दिया है; साथ ही परोक्षरूप से प्रेरणा भी ध्वनित कर दी है कि कर्म बाँधते समय पहले तो खूब विचार करो, तत्पश्चात् यदि लाचारी से कर्म बाँधना ही पड़े तो स्पृष्ट या बद्धरूप से ही बन्ध हो, इसका पूरा ध्यान रखा जाए। राग-द्वेषादि या कषायादि का रंग जितना भी तीव्र या गाढ़ होगा, उतना ही बन्ध सुदृढ़ से सुदृढ़तर होता जाएगा। इसके विपरीत इनका रंग जितना भी हलका एवं शिथिल होगा, उतना ही बन्ध शिथिल या शिथिलतर होगा। 1. कर्म फिलोसोफी (गुजराती) से भावांशग्रहण पृ. ३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004245
Book TitleKarm Vignan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages558
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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