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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना १००७ आचार्य समन्तभद्र के शब्दों में-जो प्राणियों को संसार के जन्म-मरणादि दुःखों से उबार कर उत्तम शाश्वत सुख धारण करा देता पहुँचाता है, वह (रत्नत्रयरूप) धर्म है। उपनिषद्कार कहते हैं-धर्म समग्र जगत् के स्थायित्व का मूलधार है। परन्तु वर्तमान में अधिकांश व्यक्ति धर्म की उपेक्षा करके मनमाना आचरण करते हैं, स्वच्छन्दाचारपूर्वक चलते हैं। नशीली चीजों का सेवन, मांसाहार, व्यभिचार, जुआ, चोरी, डकैती, शिकार, आतंक, हत्या, दंगा, तोड़-फोड़ आदि दुर्व्यसनों में आनन्द मानते हैं। कितने ही लोग छल-कपट, धोखा-धड़ी, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, बेईमानी आदि हिंसाजनक कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। कई लोग येन-केन-प्रकारेण धनोपार्जन करने या धनसंग्रह करने में आनन्द मानते हैं। परन्तु उनके आन्तरिक जीवन में झकिं तो असलियत का पता लग जाएगा कि वे सुख-शान्ति से कितने दूर हैं ?" आनवलक्ष्यी लोग प्रायः भोगपरायण होते हैं, उन्हें त्यांग की बात नहीं सुहाती; संवर-निर्जरारूप सद्धर्म से सुखशान्ति प्राप्त होने की बात रुचिकर नहीं लगती। जबकि भोगलालसा और भोगों की प्राप्ति में उन्हें अधिक कष्टसहन, मानसिक क्लेश का सामना, आर्त्तरौद्रध्यान, चिन्ता, शोक आदि करना पड़ता है। इतना सब त्याग करने के बाद उन्हें कदाचित् सुख मिल जाए तो भी वह अत्यल्प, पराधीन, वस्तुनिष्ठ और क्षणिक होता है। जबकि संवर-निर्जरारूप धर्म के मार्ग पर चलने वालों को विवेकपूर्वक थोड़ा-सा त्याग करना होता है; अपने मन को समझाकर, तन-वचन को उस दिशा में अभ्यस्त करके मन से उन पदार्थों से वैराग्य, सुख-सुविधाओं और कामभोगों के प्रति विरक्ति और तन-वचन से तप, संयम द्वारा कष्टों, मुसीबतों, असुविधाओं को समभाव से सहने का अभ्यास करने में जो स्वेच्छा से त्याग करना होता है, वह अत्यल्प है, उस अल्प त्याग से तत्काल स्थायी सुखशान्ति प्राप्त होती है। गीता में यही कहा है- त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् - अर्थात्-त्याग के पश्चात् शीघ्र शान्ति प्राप्त होती है। एक अपरिग्रही अकिंचन त्यागी तपस्वी की महिमा सुनकर एक राजा अत्यन्त प्रभावित हुआ। राजा के मन पर संन्यासी के त्याग का अमिट असर हुआ। वह सत्संग करने लगा। एक दिन उसने उक्त संन्यासी के त्याग की प्रशंसा करते हुए कहा- "गुरुदेव ! आप कितने महान त्यागी हैं। आपके पास धन, धान्य, मकान, वस्त्र आदि कुछ भी नहीं, आप अकिंचन है।” १. (क) सुखस्य मूलं धर्मः । - चाणक्य नीति सूत्र २ - रत्नकरण्ड श्रावकाचार श्लो. २ (ख) संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमेसुखे । (ग) अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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