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________________ ८८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) सत्कार्यों में तन्मयता का अभ्यास, मनःसंवर में सहायक (१७) मन को स्वस्थरूप से सत्कार्यों में तन्मय करो-कहावत है-खाली मन शैतान का कारखाना है। अतःमन को स्वस्थ रखकर सजनात्मक कार्यों में लगाए रखना चाहिए। मन को उदात्त भावनाओं और उच्च विचारों की खुराक देते रहने से वह स्वस्थ एवं सन्तुलित रहेगा। इस प्रकार मन को सत्कार्य में तन्मय करने से मनःसंवर बहुत ही आसान हो जाएगा। मन को अगर किन्हीं उच्च विचारों या सत्कार्यों में एकाग्र नहीं किया जाएगा तो वह निम्न एवं अवांछनीय विषयों की ओर दौड़ेगा और बिखर जाएगा। बिखरे हुए मन को नियंत्रण में नहीं लाया जा सकेगा। मन को स्वस्थ एवं शुद्ध प्रवृत्तियों में सतत संलग्न रखने का यह अर्थ नहीं कि वह नीरस हो जाए। यदि वह नीरस हो जाता है, उसकी उक्त सत्कार्य या उच्च विचार में रुचि या तन्मयता नहीं होती है, तो उसके अस्वस्थ एवं निम्नगामी होने की बड़ी सम्भावना रहती है। मन को स्वस्थ एवं सत्कार्यरत रखने के लिए अर्थात् मन को समाधिस्थ रखने के लिए श्रीमद्भागवत में सुन्दर उपाय बताया है-“दान, स्वधर्म-पालन, यमों और नियमों का अभ्यास, शास्त्रों का अध्ययन या स्वाध्याय, सत्कार्यों में संलग्नता, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य आदि सव्रतों का आचरण; ये सब अन्त में, मनोनिग्रह के लक्षण को सिद्ध करने वाले हैं। और मन का समाधिस्थ हो जाना ही परम योग-साधना है।" ____ यदि मन की अस्थिरता और चंचलता का गहराई से पता लगाया जाए तो, प्रतीत होगा कि मन की अस्थिरता का एक बड़ा कारण है-गलत विचार करना; अथवा परस्पर प्रतिक्रियाकारक गलत विचारों से मन का घिर जाना। अतः मन को स्थिर एवं निश्चल करने के लिए मनःसंवर के साधक को पूर्ण सतर्कता के साथ मन की वृत्तियों प्रवृत्तियों पर तथा मन के द्वारा किये जाने वाले मनन-चिन्तन पर पहरेदारी रखनी चाहिए। तभी मनःसंवर की साधना सफल होगी।' (१८) जीवन को उच्चतम लक्ष्य में स्थिर करने का अभ्यास-यह भी मन स्थिरता का प्रबल साधन है। संवरसाधक का उच्चतम लक्ष्य-मोक्ष या परमात्मपद होता है। उसके प्रति सतत जागरूक रहकर अभ्यास (रलत्रय की निरतिचार साधना) करने से मन स्थिर और निश्चल हो जाता है। मन के स्थिर एवं एकाग्र होने से मनःसंवर शीघ्र ही सिद्ध हो सकता है। जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य के प्रति सतत जागरूकता का अभ्यास करने से १. (क) वही, पृ. ८०, ८२ (ख) दान स्वधर्मो नियमो यमश्च, श्रुतं च कर्माणि सद्ब्रतानि। सर्वो मनोनिग्रह-लक्षणान्ताः, परो हि योगो मनसः समाधिः । श्रीमद्भागवत ११/२३/४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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