SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८७७ इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त नहीं करेगा। ऐसा होने पर सब प्रकार की भावनाएँ और इच्छाएँ मनःसंवर साधक के वश में हो जाएँगी। किन्तु यह कैसे हो ? इस सम्बन्ध में स्वामी ब्रह्मानन्द का अपने शिष्य के साथ संवाद मननीय एवं अभ्यसनीय है-"नियमित अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे मन को परमात्मा (शुद्ध आत्मा) में केन्द्रित करना चाहिए। मन पर तीक्ष्ण दृष्टि रखो ताकि उसमें कोई विक्षेप या अवांछनीय विचार न पैदा हो जाएँ। जब भी ऐसे विचार तुम्हारे मन में घुसने का प्रयल करें तभी (एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना) मन को परमात्मा की ओर मोड़ दो और हृदय से उन्हें प्रार्थना करो। ऐसे अभ्यास के द्वारा मन वश में हो जाता है और शुद्ध भी। आपातकाल में मनोविजय के व्यावहारिक उपाय (१४) प्रलोभनकारी कामभोगादि के विचारों पर मनोविजय के कतिपय व्यावहारिक सुझाव-उत्तराध्ययन में कहा गया है-“कई बार मनःसंवर के साधक के समक्ष अनेक प्रकार के शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श (जिन्हें जैनागमों और गीता में 'स्पर्श' कहा गया है) असमंजस (अव्यवस्था या विघ्न-बाधा) उत्पन्न करके पीड़ित-व्यथित करते हैं, उस समय साधक उन पर मन से भी प्रद्वेष न करे।" इन्द्रिय विषयों या कामभोगों के मन्द (अनुकूल) स्पर्श भी बहुत लुभावने होते हैं। मनःसंवर साधक तथाप्रकार के (अनुकूल) स्पों में मन को संलग्न न करे। किन्तु (आत्मरक्षक साधक) क्रोध, मान, मद, माया, और लोभ, राग-द्वेष या काम, मोह आदि किसी भी प्रकार का प्रलोभन अकस्मात् उपस्थित होने पर एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना तत्काल वहाँ से मन को हटा ले। ___आध्यात्मिक जगत् की यह आपात्कालिक स्थिति है। मनःसंवर साधक ऐसी स्थिति में क्रोध से स्वयं को बचाए अर्थात् उपशम (शान्ति) से क्रोध को जीते। मान (अहंकार) को हटाए। अर्थात् मान को मृदुता (नम्रता-निरभिमानता) से जीते। तथा माया (छल-कपट, कुटिलता आदि) का सेवन न करे। अर्थात् माया (ठगी,कुटिलता आदि) को परम सरलता (काया, भाषा एवं मन की अविसंवादिता) से जीते। और लोभ का परित्याग करे। अर्थात् लोभ पर सन्तोष से विजय पाए।' १. (क) विवेकानन्द साहित्य, खण्ड १ पृ. ८३ से भावांश ग्रहण (a) The Eternal Companion : Spiritual Teachings of Swami Brahmananda, (रामकृष्ण मठ, मद्रास १९४५) पृ. १९७ २. (क) मंदा य फासा बहुलोहणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं न कुज्जा। रक्खेज्ज कोहं विणएज्ज माणं, मायं न सेवे, पयहेज्ज लोहं ॥ फासाफुसंती असमंजसं च, न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ॥ -उत्तराध्यन अ. ४ गा. १२, ११ ___(ख) ये हि संस्पर्शजा भोगाः दुःखयोनय एव ते । -गीता अ. ५ श्लो. २२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy