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________________ ८०४ : कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आप अनिष्ट, अहितकर एवं अप्रशस्त रंग, रूप, आदि विषयों का प्रेक्षण, श्रवण, स्पर्श, आस्वादन आदि नहीं करना चाहते, क्योंकि बहुत अनिष्ट या अहितकर रंग-रूप के प्रेक्षण-श्रवणादि से आपके दिल-दिमाग पर बुरा असर पड़ सकता है। उस . अवसर पर इन्द्रिय-संवर-साधक का कर्तव्य है कि वह अनिष्ट-अहितकर या अप्रशस्त शब्द, रूप, रस, स्पर्श आदि का संयोग पाकर सहसा उत्तेजित न हो, घबराए नहीं, धैर्य से समभावपूर्वक ग्रहण करके, अनिष्ट शब्दादि को इष्ट में परिवर्तन कर दे। ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में आता है कि सुबुद्धि प्रधान ने खाई के गन्दे, अस्वादिष्ट, काले और सड़ते हुए पानी को रासायनिक पदार्थों से शुद्ध करके स्वच्छ, स्वादिष्ट और सुगन्धित पेयजल के स्वप में परिवर्तित कर दिया था, उसी प्रकार इन्द्रियसंवर-साधक भी मन को तत्त्वज्ञान से समझाकर अनिष्ट शब्दादि को इष्ट शब्दादि के रूप में परिवर्तित कर दे। ____ अनिष्ट विषय को इष्ट विषय में परिवर्तित करने की शक्ति हमारे मन-मस्तिष्क में है। भक्त मीरा ने राणा के द्वारा दिये हुए विष के प्याले को गटगटाकर अमृतरूप में परिणत कर लिया था। अनिष्ट अशुद्ध विषय विकारों को छान-छान कर उसमें से गंदगी, कीचड़, विकृति एवं अपवित्रता को शुद्ध करने की क्षमता पैदा होने पर इन्द्रिय संवर की साधना द्रुतगति से आगे बढ़ती है। . ऐसा इन्द्रिय संवर सिद्ध हो जाने पर व्यक्ति में इष्ट विषयों को ग्रहण करने की और अनिष्ट को छोड़ने की सहज शक्ति विकसित हो जाएगी। निर्विकार, शान्त और प्रसन्न मन ही रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द की अभीष्टता, वास्तविकता और सुन्दरता को समझ सकता है। वहीं इन्द्रिय-संवर विकसित होता है। मन की प्रबल शक्ति, संकल्प और प्रसन्नता तथा धारणा के कारण अनिष्ट रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द भी इष्ट एवं प्रिय प्रतीत होने लगते हैं। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। धारणाओं के कारण ही बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं। अतः इन्द्रिय-संवर की अपनी भूमिका के अनुरूप साधना करते रहने से व्यक्ति एक दिन निरिन्द्रिय होकर सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकेगा। १. “महावीर की साधना का रहस्य से यत्कंचिद् भावांश ग्रहण पृ. ८६,८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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