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________________ ४४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) कई व्यक्ति दीन-हीन और दरिद्र भी दिखाई देते हैं। अत: इस विभिन्नता, विचित्रता एवं विषमता का कारण अपने-अपने पूर्वकृत कर्मों का ही प्रभाव समझना चाहिए। फिर भले ही वे पूर्वकृत कर्म इसी जन्म के हों; या पूर्वजन्मकृत हों। इस तात्त्विक चर्चा को एक ओर रखकर यदि ठंडे दिल से सोचें तो अनुभव होगा कि पापकर्म आखिर पापकर्म ही है। उसमें मन-वचन-काया से प्रवृत्त होने का विचार उठते ही आत्मा में बेचैनी एवं उद्विग्नता उत्पन्न होने लगती है। उसकी अन्तरात्मा ही उसे इस पापकर्म के लिए कचोटती है, बार-बार धिक्कारती भी है। पापकर्म का मन में संकल्प उठते ही इस प्रकार का अन्तर्द्वन्द्व बहुत ही कष्टकर, संक्लेशकर एवं दुःखकरं होता है। उसके पश्चात् समाज में निन्दित, सरकार से दण्डित, एवं पकड़े जाने पर दुर्दशाग्रस्त, चिन्ताग्रस्त आदि होने का दण्ड भी कम भयंकर नहीं है । ' सम्यग्दृष्टि एवं विचारवान् व्यक्ति को पूर्वकृत पुण्यकर्म के फल भोगने के समय न तो हर्षित होना चाहिए और न ही अहंकारग्रस्त । तथा पापकर्म का फल भोगते समय भी न तो मन में दीनता-हीनता लानी चाहिए और न ही आर्तध्यान - रौद्रध्यान या विलाप करना चाहिए। दोनों ही स्थितियों में समभाव में रहना चाहिए, मन में विषमभाव नहीं आने देना चाहिए। तभी वह पापकर्म अपना फल भुगताकर क्षीण हो सकता है। तात्त्विक दृष्टि से सोचें तो पुण्य-पाप दोनों ही पुद्गल की पर्यायें हैं- दशाएँ हैं। दोनों ही अस्थायी हैं, परिवर्तनशील हैं। अन्त में तो दोनों को आत्मा से पृथक् करना है। किसी विचारक ने कहा है पुण्य-पाप-फल मांहि, हरख-विलखो मत भाई । यह पुद्गल परजाय, उपजि बिनसै फिर थाई ॥ २ अतः पूर्वकृत पापकर्म का फल हो, चाहे पुण्यकर्म का, दोनों ही स्थितियों में समभावपूर्वक फल भोगना ही हितावह है। १. केवल अपने लिए ही न जीएँ (ले. श्रीराम शर्मा आचार्य) से भावांश ग्रहण, पृ. १०९ जिनवाणी कर्मसिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित 'पुण्य-पाप की अवधारणा' लेख से, पृ. १५९ २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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