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________________ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन ४२५ नरकगति, (३४) नरकायु, (३५) नरकानुपूर्वी, (३६-५१) अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय, (५२-६0) हास्यादि नौ नोकषाय, (६१) तिर्यंचगति, (६२) तिर्यञ्चानुपूर्वी, (६३) एकेन्द्रियत्व, (६४) द्वीन्द्रियत्व, (६५) त्रीन्द्रियत्व, (६६) चतुरिन्द्रियत्व, (६७) अशुभविहायोगति, (६८) उपघातनाम, (६९-७२) अशुभवर्णादि चार, (७३-७७) ऋषभनाराचादि पांच संहनन, (७८-८२) न्यग्रोध-परिमण्डल आदि पांच संस्थान। __इस प्रकार ८२ रूपों में सांसारिक कर्मबद्ध जीव को पापकर्मों का फल भोगना पड़ता है। संसारस्थ विभिन्न जीवों को इनमें से अपने पापकर्मानुसार विभिन्न मात्रा में अलग-अलग रूप में यथायोग्य पापकर्मफल भोगना पड़ता है। एक ही जन्म में तत्काल ही भोगना पड़े, ऐसा एकान्त नियम नहीं है। कर्म सिद्धान्त के नियमानुसार उसे बद्धकर्म की विभिन्न प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश के अनुसार ही पाप कर्म का फल भोगना पड़ता है। पापकर्मजनित दुःखों के लिए व्यक्ति स्वयं ही उत्तरदायी पूर्वोक्त पापकों के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले दुःखों के लिए प्राणी स्वयं ही उत्तरदायी है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है-जो मिथ्यात्वग्रस्त अज्ञानी क्रूर कर्मों को बार-बार करता है, उत्कट रूप से करता है। प्रकारान्तर से वह अस्थिर और क्षणभंगुर जीवन को अजर अमर मानता है। इसलिए ज्ञानशून्य होने से वह बाल (अज्ञानी) है तथा सद्-असद् विवेक बुद्धि न होने से वह मन्द है और परमार्थ (मोक्ष) का ज्ञान न होने से वह मूढ़ (अविज्ञान) है। इसी अज्ञान दशा के कारण वह वैषयिक सुख पाने के लिए क्रूर कर्म करता है। वह अपने लिए दुःख उत्पन्न करता है। तथा उसी दुःख से उद्विग्न होकर वह विपरीत दशा (सुख के बदले दुःख) को प्राप्त होता है। उस मोह (मिथ्यात्व, कषाय, विषयसुखवांछा) से उद्धत होकर वह कर्मबन्धन करता है, उस पाप कर्म के फलस्वरूप बार-बार गर्भ में आता है, जन्म मरणादि दुःख पाता है। ... . उन दुःखों के प्राप्त होने में दोष व्यक्ति का अपना ही है, किसी दूसरे का नहीं। परमात्मा, दैव, दुर्भाग्य, काल, क्षेत्र या किसी भी निमित्तभूत व्यक्ति को दोष देना कथमपि उचित नहीं है। पाप कर्म के उदय से जो आकस्मिक हानि-लाभ या प्रकृति-प्रकोप समझे जाते हैं, वे भी मनुष्य के अपने ही संचित पाप कर्मों के फल हैं। उसमें बाहरी निमित्त कोई १. (क) नवतत्त्व प्रकरण गा. १८-१९ (ख) इन सबके स्वरूप के लिए देखें 'कर्मबन्ध प्रकरण' तथा कर्म ग्रन्थ भा. १ (पं. सुखलालजी) २. देखें-कूराणि कम्माणि बाले पकुब्वमाणे, तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेइ । मोहेण गब्भं मरणाति एति।" -आचारांग सूत्र श्रु. १, अ. ५, उ. १, सू. १४८) का विवेचन व टिप्पण (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) पृ. १४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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