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________________ ९ पुण्य-पापकर्म का फल : एक अनुचिन्तन संसार का चक्र कर्म की धुरी पर चलता है यह संसार अनादिकाल से कर्म की धुरी पर घूमता चला आ रहा है। इसके भ्रमण का व्यक्तिशः रूप से भले ही अन्त हो जाता हो, किन्तु प्रवाह रूप से कभी अन्त नहीं होता। वस्तुतः यह संसार ही कर्म के आधार पर टिका हुआ है। भारतीय लोगों के मुख पर तो यह वाक्य रमा हुआ है- "कर्मप्रधान विश्व रचि राखा ।” यह संसार कर्मभूमि है। कर्म, उसका फल और फलभोग, फिर कर्म, उसका फल और फलभोग; इस प्रकार संसार का चक्र कर्म की धुरी पर चल रहा है। जो जैसा कर्म करता है, उसे उसी के अनुरूप फल मिलता है, जो उसे देर-सबेर भोगना पड़ता है। वरूपी क्षेत्र में बोया गया जैसा बीज, वैसा ही फल संसारी जीव (आत्मा) कर्मरूपी बीज बोने का क्षेत्र (खेत) है। वही कर्म-बीज कभी तत्काल, कभी उसी जन्म में और कभी जन्मान्तर में फलित होते हैं। व्यक्ति मन-वचन-काया से कृत-कारित - अनुमोदित रूप में राग-द्वेष- कषाय की तीव्रतामन्दतापूर्वक जिस प्रकार से जिस कर्म के बीज बोता है, कालान्तर में वे ही बीज उसी रूप में पुष्पित-फलित होते हैं। जिस प्रकार कोई कृषक अपने खेत में धान ( चावल ) बोये और गेहूँ की फसल काटना चाहे, यह कदापि सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार पाप कर्म करके पुण्यफल प्राप्त करना चाहे, यह भी असम्भव है। इसीलिए वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट कहा गया है- " हे कल्याणि ! कर्त्ता शुभ अथवा अशुभ जैसा भी आचरण (कर्म) करता है, उस कर्म का फल उसी रूप में वह पाता है।" सूत्रकृतांग सूत्र भी इस तथ्य का साक्षी है-“जैसा किया हुआ कर्म, वैसा ही उसका फलभोग प्राप्त होता है ।" तथैव अतीत में जैसा भी, जो भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी प्रकार के फल-रूप में) उपस्थित होता है। महाभारत वनपर्व में भी इसी सत्य का समर्थन किया गया है- "हे पुरुषोत्तम ! जो व्यक्ति जैसा भी शुभ या अशुभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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