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________________ ३७८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मफल के विविध आयाम (५) कर्मवादी यह कहकर छुट्टी नहीं पा सकता कि कर्म का ऐसा ही विधान था, अथवा कर्म की ऐसी ही मर्जी थी। कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कर्मफल के साथ-साथ कर्मबन्ध के नियमों की गहराई से खोज की। यदि हम उन नियमों की दृष्टि से कर्मफल की छानबीन करते हैं, तो मन में एक प्रकार का सन्तोष, आश्वासन और फल को समभाव से भोगने का बल मिलता है। इस विचित्र संसार में हर प्राणी के कर्म के तथा पदार्थ के, अणु-परमाणु के, शरीर और इन्द्रियों के, मन और वचन के अपने-अपने नियम हैं। वे सभी नियमानुसार अपना काम करते हैं। कर्मफल विषयक ये सब नियम स्वयंकृत ( ओटोमैटिक) हैं, प्राकृतिक हैं और सार्वभौम हैं। अतः इसके नियमन में बाहर से कृत या आरोपित व्यवस्था या नियन्ता की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। जैन कर्मविज्ञान-वेत्ता सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग महापुरुषों ने अपनी अनुभूति के आधार पर कर्मफल के नियमों की प्ररूपणा की। उन नियमों का जानना प्रत्येक आस्तिक व्यक्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है।" कर्मफल के नियमों को न जानने से हानि कर्मफल के नियमों को न जानने के कारण कई बार व्यक्ति स्वयं उलझन में पड़ जाता है, अथवा कर्म के प्रति अश्रद्धा प्रकट कर बैठता है, कर्मों को आंशिकरूप से क्षय करने तथा उनसे सर्वथा मुक्त होने, नये कर्मों के प्रवेश (आम्रव) को रोकने पर उसका विश्वास उठ जाता है। कर्मविज्ञान पर अविश्वास के साथ-साथ वह बेखटके अशुभ कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है, घातिकर्ममुक्त वीतराग जीवन्मुक्त परमात्मा के प्रति तथा घातिअघाति-अष्टकर्ममुक्त सिद्ध परमात्मा के प्रति भी अश्रद्धा प्रकट करता रहता है । अपनी आत्मा को कर्मफल भोग कर शुद्ध करने की ओर उसका ध्यान ही नहीं जाता । कोई संकट आने, अक्समात् बीमारी आदि प्रसंगों पर उसे इस बात का बोध ही नहीं होता कि यह मेरे किस कर्म का फल है ?२ कर्म-विज्ञान नियमों की खोज पर आधारित है संसार का प्रत्येक भौतिकविज्ञान - वेत्ता पहले नियमों की खोज करता है, फिर 9. जैनदर्शन और अनेकान्त से भावांश ग्रहण पृ. १०५ २. देखें - उत्तराध्ययनसूत्र अ. २ परिसहज्झयणं में" से नूणं मए पुव्वं कम्माऽ णाणफलाकडा । जेणाऽहं नाभिजानामि पुट्ठों केणइ कण्हुई || अह पच्छा उइज्जति कम्माऽणाणफलाकडा । एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥" Jain Education International - उत्तराध्ययन. अ. २ गा. ४०-४१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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