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________________ कर्म-महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३५९ इस प्रकार बाह्यद्रव्यरूप शुभ पुद्गल या पुद्गलों का जो वेदन किया जाता है, अथवा दिव्यफल आदि के आहार-परिणाम रूप जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, या स्वभाव से जिन पुद्गलों का परिणाम अकस्मात् जलधारा के आगमन आदि के रूप में वेदन किया जाता है; वही है उच्चगोत्रकर्म के फल का वेदन। ये अनुभाव परतः उच्चगोत्रनामकर्मोदय के कारण होते हैं। स्वतः उच्चगोत्रीय नामकर्मोदय से होने वाले अनुभाव में तो उच्चगोत्रनामकर्म के पुद्गलों का उदय ही कारण है।' नीचगोत्रकर्म का अनुभाव : प्रकार, स्वरूप और कारण-जीव के द्वारा बद्ध आदि विशिष्ट कारणों से इस कर्म का उदय होने पर नीचगोत्र का अनुभाव होता है। यह भी आठ ही प्रकार का है, किन्तु उच्चगोत्रकर्म से यह विपरीत है। यथा-जातिविहीनता से लेकर ऐश्वर्यविहीनता। नीच और कलंकित आचरण कृत्य के या अधम, दुर्जन, दुष्ट आदि के संसर्ग रूप नीचगोत्रीयकर्म पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, अर्थात् उत्तम कुल और जाति वाला व्यक्ति जब नीचकर्मवशात् अधम आजीविका अथवा चाण्डाल कन्या आदि के साथ अनाचार सेवन करता है, तब चाण्डाल के समान ही लोकनिन्दनीय बन जाता है। यह जातिकुल विहीनता है। सुख शय्या निश्चिन्तता आदि का योग न होने से बलहीनता उत्पन्न होती है। दूषित अन्न, खराब, गंदे वस्त्र आदि के योग से रूपहीनता होती है। देशकाल आदि के विरुद्ध माल खरीदने (कुक्रय) आदि से लाभहीनता होती है। निर्धनता, खराब मकान, खराब परिवार, कुलटा स्त्री आदि के संयोग से ऐश्वर्यहीनता होती है। शास्त्रों के अनभ्यास, अस्वाध्याय आदि के कारण श्रुतहीनता उत्पन्न होती है। इस कर्म के उदय से किसी वात-पित्त-कफव्याधिकारक आहारादि-परिणमनरूप पुद्गल परिणाम बल आदि की हीनता का वेदन किया जाता है, अथवा मांस, मद्य आदि अधम पुद्गल-परिणाम के प्रभाव से भी जातिहीनता-कुलहीनता आदि का अनुभाव होता है। यह परतः नीचगोत्रकर्मोदय से होने वाला अनुभाव है। स्वतः नीचगोत्रोदय में तो नीचगोत्रकर्म-पुद्गलों का उदय ही कारण रूप होता है। उसी से जाति विहीनता आदि का अनुभाव होता है। अन्तराय कर्म का पंचविध अनुभाव : स्वरूप और कारण-जीव के द्वारा बद्ध आदि से विशिष्ट अन्तराय कर्म का अनुभाव पाँच प्रकार का है-(१) दानान्तराय, (२) लाभान्तराय, (३) भोगान्तराय, (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, जीव की इन शक्तियों में विघ्न बाधा उपस्थित हो जाना १. वही, पद २३, के सूत्र १६८५/१ का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, पृ. १८, २५ २. वही, पद २३, के सूत्र १६८५/२ का मूलपाठ, अनुवाद एवं विवेचन, पृ. १९, २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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