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________________ कर्म - महावृक्ष के सामान्य और विशेष फल ? ३४३ इसके अतिरिक्त आत्मा के ज्ञान-दर्शन पर आवरण, आत्मिक सुख और दानादि शक्तियों का अवरोध, मोह-मूढ़ता, सम्यक्त्व - मूढ़ता, आधि-व्याधि-उपाधि, संकट, दीनता दारिद्र्य आदि दुःखानुभव, तथा अशुभगति, जाति, शरीर, अंगोपांग आदि, तथा नीचगोत्र आदि अशुभ; एवं सुखशान्ति, तन-मन की स्वस्थता, दीर्घायुष्य, सौभाग्य, सुस्वरता, सुगति, उच्चगोत्र, पंचेन्द्रिय जाति, शुभ अंगोपांग, शरीर का अच्छा गठन, अच्छा ढांचा, सुन्दर आकृति, शुभ स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण, आतप, उद्योत, शुभ विहायोगति आदि शुभ; कर्म रूपी महावृक्ष के तीव्र - मन्दादि अनुभागों (रसों) तथा प्रदेशों और स्थितियाँ में तारतम्य के अनुसार अनन्त शुभाशुभ फल हैं। जैनकर्मविज्ञान : कर्म के मूल से लेकर फल तक का तथा उससे मुक्ति का सांगोपांग प्ररूपक जैनकर्मविज्ञान कर्म-महावृक्ष के अस्तित्व को सिद्ध करके बताता है, वैसे ही कर्म महावृक्ष के मूल से लेकर फल तक के अगणित अंगोपांगों का भी बहुत कुशलता और विचक्षणतापूर्वक कर्मशास्त्र द्वारा परिचय कराता है। साथ ही कर्म विज्ञान की यह विशेषता है कि गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान-अज्ञान, भव्य, संज्ञा, आदि मार्गणास्थान, १४ मुख्य जीवस्थान और १४ गुण-स्थान आदि के माध्यम से गणना (कम्प्युटरिंग) करके प्रत्येक संसारी जीव के क्षण-क्षण में आने वाले और बंधने वाले कर्मों और उनके फलों का फलादेश बता देता है। जैनकर्मविज्ञान इतना ही बताकर नहीं रह जाता, वह यह भी बता देता है कि कर्म कैसे आते हैं? कैसे बंधते हैं ? कब तक कौन-सा कर्म, जीव के साथ रहता है ? साथ ही जीव कर्म क्यों, कैसे और किस माध्यम से करता है ? उनका फल कैसे भोगता है ? कौन उन कर्मों का फल भुगवाता है ? जिस प्रकार फल पकने के बाद वृक्ष से झड़ जाते हैं, कई फल आँधी आदि से झड़ जाते हैं, कई फलों को कच्चे ही तोड़ कर पाल में रखकर शीघ्र पका लिये जाते हैं; इसी प्रकार बद्धकर्म का काल-परिपाक हो जाने पर वे फल भुगता (दे) कर तुरन्त झड़ जाते हैं; कर्मवृक्ष से अलग हो जाते हैं। कर्मविज्ञान ने कर्मक्षयोपाय के सम्बन्ध में दशाश्रुतस्कन्ध में बताया है कि जिस वृक्ष का मूल सूख गया हो, उसे कितना ही सींचा जाए वह अंकुरित नहीं होता, इसी प्रकार मोहरूपी मूल का क्षय हो जाने पर कर्म भी फिर अंकुरित (प्रादुर्भाव ) नहीं होते।' कर्मविज्ञान ने यह भी बताया कि जो व्यक्ति कर्मों को फलोन्मुख होने से पहले ही १. देखें दशाश्रुतस्कन्ध (५/१४ ) में - " सुक्कमूले जहा रुक्खे, सिच्चमाणे न रोहति । एवं कम्मा न रोहति मोहणिज्जे खयं गए ||" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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