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________________ कर्मफल : यहाँ या वहाँ, अभी या बाद में ? ३२३ इसी प्रकार मनुस्मृति आदि में भी कहा गया है - " कई दुरात्मा (दुष्ट) मानव इस जन्म में दुश्चरित कर्मों से तथा कई पूर्वजन्मकृत दुष्कर्मों से अपनी स्वाभाविकता खोकर विपरीत रूप (योनि) प्राप्त करते हैं। महाभारत भी इसी तथ्य का साक्षी है - " प्राणी स्व-स्वकृत कर्मों के कारण परलोक में दुःखी होता है, तथा उन दुःखों का प्रतीकार करने के लिए पापयोनि को प्राप्त करता है।”” इहलोककृत कर्म का फलभोग : इस लोक में भी, परलोक में भी भविष्य पुराण में भी इस तथ्य का पूर्ण समर्थन किया गया है - "इस जन्म में किये गए कर्म का फल (प्रायः) दूसरे (पर) जन्म में प्राप्त होता है। मनुष्यों द्वारा पूर्वजन्म में किये हुए कर्म का फल प्रायः वर्तमान में फलरूप से प्राप्त होता है।" इस लोक में किये गए कर्म भूमि में बोये गये बीज की तरह तत्काल फल उत्पन्न नहीं करते । अपितु धान्य (फसल) या वृक्षों के फल के रूप में यथासमय फलित होते हैं। वाल्मीकि रामायण में इस विषय में स्पष्ट कहा गया है - "जिस प्रकार वृक्ष के फूल ऋतु आने पर ही लगते हैं, वैसे ही पापकर्म का कर्ता भी उसका घोर फल समय आने पर ही पाता है । " मनुस्मृति में भी कहा गया है - कई दुरात्मा मानव इस लोक में किये हुए दुश्चरित (दुष्कर्मों) से तथा कई पूर्वकृत दुष्कर्मों से अपनी स्वाभाविकता खोकर विद्रूप बन जाते . सूत्रकृतांग सूत्र चूर्णि में भी इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया गया है - ( १ ) कई इस लोक में किये हुए कर्म इस लोक में फलित हो जाते हैं, फल दे देते हैं। (२) इस लोक में किये हुए कई कर्म परलोक में फल देते हैं। (३) परलोक में किये हुए कई कर्म इस लोक में फल देते हैं और (४) परलोक में किये गए कर्म परलोक में ही फल दे देते हैं ।” १. (क) इह दुश्चरितैः केचित् केचित् पूर्वकृतस्तथा । प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नररूपं विपर्ययम् । (ख) जन्तुस्तु कर्मभिस्तैस्तैः स्वकृतैः प्रेत्य दुःखितः । तद्दुःख-प्रतिघातार्थमपुण्यां योनिमाप्नुते ॥ २. (क) 'इह जन्म कृतं कर्म परजन्मनि प्राप्यते । पूर्वजन्मकृतं कर्म भोक्तव्यं तु सदा नरैः ॥" (ख) अवश्यं लभते कर्ता फलं पापस्य कर्मणः । घोरं पर्यागते काले द्रुमः पुष्पमिवार्तवम् ॥ (ग) इह दुश्चरितैः केचित् केचित् पूर्वकृतैस्तथा । प्राप्नुवन्ति दुरात्मानो नरा रूपं विपर्ययम् ॥ Jain Education International - मनुस्मृति - म. भा. वनपर्व ३५ -भविष्य पुराण ३/२/२४/३६ - वाल्मीकि रा. अरण्य काण्ड सर्ग. २९/८ For Personal & Private Use Only - मनुस्मृति www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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