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________________ कर्मफल : वैयक्तिक या सामूहिक ? २९३ भिन्न-भिन्न प्रकार की हुई। इस प्रकार आचरण या कर्म एकनिष्ठ, किन्तु व्यवहार अनेकनिष्ठ-सामूहिक हुआ।' निष्कर्ष यह है कि क्रिया करने वाले एक व्यक्ति को तो अपने शुभ या अशुभ भावों के अनुसार कर्मबन्ध और कर्मफल मिलता है किन्तु साथ ही उस क्रिया पर भिन्न-भिन्न प्रकार की शुभाशुभ भावों की प्रतिक्रिया करने वालों को भी कर्मबन्ध और कर्मफल सामूहिक रूप से प्राप्त होता है। कर्म और कर्मफल वैयक्तिक भी, सामाजिक भी : क्यों और कैसे? पूर्वोक्त सन्दर्भो में कर्मविज्ञान के रहस्य को समझा जाए तो कर्म के वैयक्तिक और सामाजिक दोनों पक्ष यथार्थ सिद्ध होते हैं। फलितार्थ यह है कि जो कर्म करता है, वही उसका फल भोगता है, यह कर्मबन्ध और कर्मफल की वैयक्तिकता भी यथार्थ है और एक के किये हुए कर्म का परिणाम समूह को भी भोगना पड़ता है, यह कर्म और कर्मफल की सामूहिकता-सामाजिकता भी यथार्थ है। दोनों पक्ष समन्वित होकर कर्म विज्ञान की यथार्थ तस्वीर व्यक्त करते हैं। ___ अनेकान्त दृष्टि से कहें या सापेक्ष दृष्टि से कहें, जब हम उपादान की अपेक्षा से विचार करते हैं तो कर्म और कर्मफल वैयक्तिक होता है, और जब निमित्त की अपेक्षा से सोचते हैं तो कर्म एवं कर्मफल सामाजिक होता है। इसी प्रकार संवेदन की अपेक्षा से सोचते हैं तो व्यक्ति-व्यक्ति का संवेदन पृथक्-पृथक् होने से कर्म और कर्मफल वैयक्तिक प्रतीत होता है, किन्तु जब हम परिणाम की अपेक्षा से विचार करते हैं तो प्रतीत होता हैकर्म और कर्मफल सामूहिक है-सामाजिक है।२ . वैयक्तिक कर्मों का संक्रमण नहीं, सामाजिक कर्मों में ही संक्रमण ___ इसी प्रकार कर्मविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में जब हम संक्रमण की दृष्टि से विचार करते है तो ऐसा भी प्रतीत होता है कि जो कर्म वैयक्तिक होते हैं, उनका संक्रमण नहीं होता, उनमें कर्म और कर्मफल का आदान-प्रदान या विनिमय नहीं होता; किन्तु जो कर्म सामाजिक होते हैं, उनमें संक्रमण होता है, विनिमय होता है। जैसे-एक परोपकारपरायण व्यक्ति दान करता है, भोजनसत्र चलाता है, या निःशुल्क शिक्षण संस्था चलाता है, तो उसके इस शुभकर्म का फल उसको तो मिलता ही है, समाज को भी उसका सामूहिक फल मिलता है। १. वही, भावांश ग्रहण पृ. १८३ • २. कर्मवाद से भावांश उद्धृत पृ. १८५ ३. वही, भावांश ग्रहण पृ. १८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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