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________________ १७० कर्म-विज्ञान : भाग - २ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) पूर्वबद्ध कर्म-संस्कार की यह जागृति उसका उदय होना कहलाता है, कार्य के प्रति प्रेरित करना उसकी फलाभिमुखता है और उसकी प्रेरणा से अमुक कार्य करना उसका फल है। प्रदेशोदय और विपाकोदय का रहस्य जैनकर्मविज्ञान की यह मान्यता है कि जितने भी कर्म बंधे हैं, वे अपना फल (विपाक) प्रदान करते हैं। किन्तु कतिपय कर्म ऐसे भी होते हैं, जो फल देते हुए भी भोक्ता को फल की अनुभूति नहीं कराते, और निर्जीर्ण हो जाते हैं। जो कर्म फल की अनुभूति कराये बिना ही निर्जीर्ण हो जाता है, उसका उदय प्रदेशोदय कहलाता है। कषाय के अभाव में ईर्यापथिक क्रिया के कारण जो बंध होता है, उसका सिर्फ प्रदेशोदय होता है। जैसे-ऑपरेशन करते समय रोगी को क्लोरोफार्म या गैस सुंघाकर अचेतावस्था में जो शस्त्रक्रिया की जाती है, उसमें वेदना की अनुभूति नहीं होती, वैसे ही प्रदेशोदय में फल की अनुभूति नहीं होती। इसके अतिरिक्त जो कर्मपरमाणु अपनी फलानुभूति करवा कर आत्मा से निर्जीर्ण हो जाते हैं, उनका उदय विपाकोदय कहलाता है। प्रदेशोदय काल में विपाकोदय का होना अनिवार्य नहीं है,' किन्तु विपाकोदय की अवस्था में प्रदेशोदय अवश्य होता है। आनव, बन्ध, सत्ता और उदय में घनिष्ठ सम्बन्ध मन-वचन-काय द्वारा नये शुभाशुभ कर्म करना, अथवा उस कर्म (कार्य) द्वारा कर्मण शरीर पर आद्य संस्कार अंकित हो जाना आनव है। रागद्वेषादिवश कर्म-संस्कारों का आत्मप्रदेशों के साथ एकरूप हो जाना ही उसका बन्ध है। इस जन्म के या पिछले जन्म या जन्मों के अनन्त कर्मसंस्कारों का कार्मण शरीर के या उपचेतना के कोश में प्रसुप्त एवं कुछ करे -धरे बिना पड़े रहना उसकी सत्ता (सत्व) है। सत्ता में स्थित इन प्रसुप्त कर्मसंस्कारों का यथासमय यथानिमित्त जागृत अथवा फलोन्मुख होकर जीव को नया कार्य (कर्म) करने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करते रहना उसका उदय कहलाता है। वे वास्तव में, बन्ध को प्राप्त कर्मसंस्कार जब तक प्रसुप्त रहते हैं, तब तक सत्तास्थित कहलाते हैं और जब वे ही सत्तास्थित कर्म - संस्कार जागृत होकर प्रेरक बन 9. (क) धर्म और दर्शन ( उपाचार्य देवेन्द्रमुनि) पृ. ९७ (ख) कर्म रहस्य ( जिनेन्द्र वर्णी) (ग) जैन कर्म सिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन (डॉ. सागरमल जैन ) पृ. २६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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