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________________ जैन कर्म-विज्ञान की विशेषता १२९ के कर्मों का आयात आत्मा के बिना कैसे हो सकता है ? इस समस्या के समुचित समाधान के लिए जैनकर्मविज्ञान ने तैजस और कार्मण शरीर (सूक्ष्मतम शरीर) माना है जो पूर्वजन्मकृत अभुक्त कर्मों का आत्मा के साथ इस जन्म में आयात भी करता है और इस जन्म में किये हुए अभुक्त कर्मों का अगले जन्म या जन्मों में निर्यात भी करता है। इस प्रकार जैनकर्मविज्ञान द्वारा आत्मा के साथ कर्मशरीरजन्य कर्मों के सम्बन्ध की विधिवत् विशद एवं वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या की गई है। कर्मों का वर्गीकरणपूर्वक विवेचन जैनकर्मविज्ञान में ही यद्यपि अन्य दर्शनों एवं धर्मशास्त्रों में कर्मों एवं कर्मफलों का सामान्यरूप से वर्णन मिलता है, किन्तु कर्मों को उनकी विविध प्रकृतियों के अनुसार मूल ८ और उत्तर १४८ भेदों में वर्गीकृत करके उनके माध्यम से सांसारिक आत्माओं की अनुभवसिद्ध विभिन्न अवस्थाओं का जैसा स्पष्टीकरण जैनकर्मविज्ञान में किया गया है, वैसा किसी भी जैनेतर दर्शन एवं धर्मशास्त्र में नहीं मिलता। पातंजल योगदर्शन में कर्म के जाति, आयु और मोग-ये तीन प्रकार के विपाक बतलाये गये हैं, परन्तु जैनकर्मविज्ञान में विविध रूपों में वर्गीकरण करके जिस प्रकार विभिन्न कर्मों के तदनुरूप विपाक का निरूपण किया गया है, वैसा निरूपण अन्यत्र नहीं मिलता। यही जैनकर्मविज्ञान की विशेषता है। ऐसा कर्मफल का सिद्धान्त अन्यत्र नहीं मिलता डॉक्टर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जैनकर्मविज्ञान के व्यवस्थित निरूपण से प्रभावित होकर अपना मन्तव्य प्रकट किया है-“कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जाता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता।"२ जैनकर्मविज्ञान का साहित्य : व्यापक एवं विराट् वैज्ञानिक रूप में वस्तुतः जैनकर्मविज्ञान के साहित्य में कर्म-सिद्धान्त के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से पर्याप्त विश्लेषण किया गया है। जैनदर्शन में प्रतिपादित कर्मव्यवस्था का जो व्यापक एवं विराट् वैज्ञानिक रूप मिलता है, वैसा किसी भी भारतीय परम्परा में दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन-परम्परा इस दृष्टि से सर्वथा विलक्षण एवं विचक्षण है। पूर्वगत आगमिक साहित्य से अद्यावधि प्रकाशित साहित्य में कर्मविज्ञान का विकास, १. जिनवाणी कर्म सिद्धान्त विशेषांक में प्रकाशित ‘कर्म और आधुनिक विज्ञान' लेख से पृ. ३१२ २. देखें-अशोक के फूल (भारतवर्ष की सांस्कृतिक समस्या) से, पृ. ६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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