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________________ १०६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : उपयोगिता, महत्ता और विशेषता (४) अतीत में कृत करोड़ों जन्मों के संचित कर्मों को बहुत शीघ्र ही तपस्या से क्षय कर डालत मुनि स्थूलभद्र : अतीत की पकड़ से मुक्त हो वर्तमान संवर साधना में दृढ़ रहे नंदवश के प्रधानमंत्री शकडाल का पुत्र स्थूलभद्र पूर्वजन्म के संस्कार-वश बचप से ही विरक्त जीवन जी रहा था। पिता ने सोचा-मेरा पुत्र विरक्त-सा जीवन जी रहा है। यदि इसने संन्यास अंगीकार कर लिया तो मेरा आधार छूट जाएगा। अतः इसे कामशास्त्र पढ़ाकर गृहस्थाश्रम में फँसाना चाहिए। उस युग में पाटलिपुत्र में काम-कला में पारंगत थी कोशा वेश्या! शकडाल ने स्थूलभद्र को कोशा वेश्या के यहाँ रखा। . . स्थूलभद्र कोशा वेश्या के यहाँ बारह वर्ष तक रहा। अब वह कोशा में पूर्णतया आसक्त हो गया। घर आने का नाम नहीं लेता था। अपने पिता की मृत्यु के बाद जब उन्हें अर्थी पर लिटाकर श्मशान की ओर ले जा रहे थे। स्थूलभद्र को एकदम विरक्ति हो गयी, वेश्या से और काम-वासना से। उसने आचार्य सम्भूतिविजय से मुनिदीक्षा ले ली। जितना अतिक्रमण हुआ था, उसका प्रतिक्रमण किया। वे जितने विषयभोगों में आकण्ठ प्रवृत्त हुए थे, अब वे पुनः भोगों से सर्वथा निवृत्त हो गए। ब्रह्मचर्य की कठोर साधना की परीक्षा देने के लिए उन्होंने गुरु से कोशा वेश्या की चित्रशाला में चातुर्मास बिताने की अनुमति मांगी। गुरु ने योग्य समझकर स्वीकृति दे दी। स्थलभद्र कोशा की चित्रशाला के द्वार पर पहँचे। चातुर्मास बिताने की आज्ञा मांगी। कोशा वेश्या तो अपने प्राचीन प्रेमी को आए देखकर बहुत ही हर्षित हुई। बारह वर्ष जिसके साथ बिताए थे, उसी कोशा वेश्या की चित्रशाला में एक पवित्र साधु के रूप में चातुर्मास बिताना कितना कठिनतम कार्य था। आग और घी का संयोग था। चित्रशाला का पूरा वातावरण कामुकता को जगाने वाला था, और ऊपर से कोशा वेश्या का प्रतिदिन षोड़श शृंगार से सुसज्जित होकर मनमोहक नृत्य, गीत, वाद्य, तथा षडरसयुक्त आहार भी कामवासना को उत्तेजित करने वाला था। फिर भी स्थूलभद्र मुनि ब्रह्मचर्य में पूर्णतः स्थिर रहे, जरा भी चलायमान न हुए। कोशा वेश्या ने कहा-“इस रसिकता को छोड़कर नीरसता में कहाँ फँस गए आप? आपने मुनिधर्म क्यों अंगीकार कर लिया? आप जीवन भर यहीं रहें। मैं आपकी हूँ।' यों कोशा ने पूरी शक्ति लगाकर मुनि स्थूलभद्र को विचलित करने का प्रयत्न किया। चार मास पूर्ण हो गए। मुनि काजल की कोठरी में रहकर भी पूर्णतः निर्लिप्त रहे। १. "भवकोडिसंचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जई। - उत्तराध्ययन ३०/६ २. कीचड़ और कमल : उपाचार्य देवेन्द्र मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004243
Book TitleKarm Vignan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages560
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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