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________________ ५४ कर्म-विज्ञान : कर्म का अस्तित्व (१) वैर-परम्परा चालू रही। यह घटना चक्र भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के अस्तित्व को असंदिग्ध रूप से उजगर करता है। ' इसी प्रकार सती राजीमती के साथ अरिष्टनेमि तीर्थंकर का पिछले नौ जन्मों का स्नेह था। तीर्थंकर भव में उन्हें उन नौ जन्मों की स्मृति हुई । यह चरित भी पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की सिद्धि को अभिव्यक्त करता है। ? और भी ऋषभदेव, शान्तिनाथ, मल्लिनाथ आदि तीर्थंकरों के पूर्वभवों का वर्णन पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को स्वीकार करने को बाध्य करता है। श्रमण भगवान् महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में उत्तराध्ययन सूत्र वर्णित कई अध्ययनों में पूर्वजन्म - पुनर्जन्म की स्मृति का उल्लेख स्पष्टतः किया है। इसी सूत्र का नमिप्रव्रज्या अध्ययन भी पूर्वजन्म के अस्तित्व का साक्षी है। इसमें देवलोक से मनुष्य लोक में आए हुए नमिराज का मोह उपशान्त होने पर पूर्वजन्म के स्मरण का तथा अनुत्तरधर्म में स्वयं सम्बुद्ध होकर प्रव्रजित होने का स्पष्ट उल्लेख है। ४ उत्तराध्ययन सूत्र का चित्र सम्भूतीय अध्ययन तो छह जन्मों तक चित्र और सम्भूत के साथ-साथ जन्म लेने की घटनाएँ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म की श्रृंखला का ज्वलन्त प्रमाण हैं। उनके छह जन्म इस प्रकार बताये गए हैं - (१) गोपाल पुत्रद्वय ने मुनिदीक्षा ग्रहण की, आयुष्य पूर्ण कर मुनिजीवन में जुगुप्सावृत्ति के कारण दासी पुत्र हुए, (२) सर्पदंश से मर कर वन्य मृग बने, (३) शिकारी के बाण से मर कर राजहंस हुए, (४) भूतदत्त चाण्डाल के पुत्र हुए, नाम रखा गया - चित्र और सम्भूति। तत्पश्चात् जातिमदान्ध लोगों द्वारा तिरस्कृत होने से दोनों ने एक शान्त मुनि से दीक्षा ग्रहण की। उत्कट तपस्या के फलस्वरूप कई लब्धियाँ प्राप्त हुई । १. (क) त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (पार्श्वनाथ चरित) ९ / ३ (ख) पार्श्वनाथ चरित, भ. पार्श्व : एक समीक्षात्मक अध्ययन २. त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र पर्व ८ ३. (क) वही, पर्व. १, ३/१५, ३/१८ (ख) ज्ञाता धर्मकथा ८ ४. देखें - उत्तराध्ययन सूत्र ३ / ९ (सं. साध्वी चन्दना) की ये गाथाएँ - चइऊण देवलोगाओ उववन्नो माणुसंमि लोगम्मि । उवसंत मोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाई ॥ १ ॥ जाई सरितु, भयवं सहसंबुद्धो अणुत्तरे धम्मे । पुत्तं ठवेत्तु रज्जे, अभिणिक्खमई नमी राया ॥२॥ Jain Education International - उपाचार्य देवेन्द्र मुनि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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