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________________ जहाँ कर्म, वहाँ संसार ४७ कर्मफलदाता और सुख-दुःख निर्णायक है । न्यायदर्शन गौतमसूत्र में ईश्वर के द्वारा अच्छे-बुरे कर्मों का फल प्राप्त होने की बात कही गई है। " - वैशेषिक दर्शन के अनुसार भी संसार का कर्ता-धर्ता संहर्ता महेश्वर है अतः वहाँ भी ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानकर उसके स्वरूप का वर्णन किया गया है। उसकी इच्छा से संसार का सृजन और प्रलय होता है, उसकी इच्छा होती है, तभी संसार बन जाता है ताकि सभी जीव अपने- अपने कर्मानुसार सुख-दुःखरूप फल भोग सकें। जब महेश्वर की इच्छा होती है, तब वह उस जाल को समेट लेता है। जीवों के प्राचीन कर्म (पुण्य-पाप) को ध्यान में रखकर वह एक अभिनव संसार की रचना करता है। इस मत से भी संसार का कारण कर्म न होकर महेश्वर प्रतीत होता है । २ ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य में आद्य शंकराचार्य ने उपनिषदों के आधार पर कई स्थलों पर 'ब्रह्म' को संसार का उपादान कारण सिद्ध किया है। उन्होंने प्रतिपादन किया कि संसार का निमित्त और उपादान - दोनों ही कारण ब्रह्म है। सृष्टि के आदि में अकेला ब्रह्म था, उसका संकल्प हुआ कि मैं "एक से अनेक हो जाऊँ। मैं संसार की रचना करूँ ।" यह इच्छा हुई कि इस संसार की रचना हो गई। ब्रह्म इस संसार का निर्माण अपने में विद्यमान माया के माध्यम से करता है। ब्रह्मवाद की इस परिकल्पना से भी संसार का कारण ब्रह्म सिद्ध होता है। जैनदर्शन द्वारा ईश्वरकृत संसार का निराकरण जैनदर्शनसम्मत कर्मवाद इन सब परिकल्पनाओं का खण्डन करता है। उसका कथन है कि जीव जैसे कर्म करने में स्वतंत्र है; वैसे ही उसका फल भोगने में भी स्वतंत्र है। यदि ईश्वर को जीव के कर्म का प्रेरक या कर्मफलप्रदाता माना जाएगा तो जीव (आत्मा) द्वारा पूर्वकृत, तथा वर्तमानकृत शुभाशुभ कर्म निरर्थक सिद्ध होंगे। ईश्वर को संसार के सृजन एवं संहार के तथा संसारी जीवों को कर्म प्रेरणा करने या कर्मफल प्रदान १. . (क) कर्मग्रन्थ भा. १ ( प्रस्तावना) (मरुधर केसरी मिश्रीमलजी म.) पृ. २३ से सारांश उद्धृत (ख) 'तत्कारित्वादहेतुः ।' न्यायदर्शन गौतमसूत्र अ. ४ आ. १ सू. २१ २. वैशेषिक दर्शन प्रशस्तपादभाष्य पृ. ४८ ३. (क) कर्मग्रन्थ, भा. १ (प्रस्तावना) (पं. सुखलाल जी) (ख) “चेतनमेकमद्वितीयं ब्रह्म क्षीरादिवद् देवादिवच्चानपेक्ष्य बाह्य-साधनं स्वयं परिणममान जगतः कारणमिति स्थितम् ।" - ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य २/१/१६ (ग) “तस्मादशेष वस्तु विषयमेवेदं सर्वविज्ञानं सर्वस्य ब्रह्म कार्यतापेक्षयोपन्यस्यत इति द्रष्टव्यम् ।” • वही, अ. २ पा. ३, आ. १ सू. ६ भाष्य (घ) "श्रुतिप्रामाण्यादेकस्माद् ब्रह्मण आकाशादि महाभूतोत्पत्तिक्रमेण जगज्जातमिति निश्चीयते ।” ब्रह्मसूत्र अ. २, पा. ३, आ. १ सू, ७ भाष्य For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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