SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 601
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मों के दो कुल : घाति और अघाति कुल ५७९ सत्ता अभी तक बनी रहती है। वह समूल नष्ट नहीं हुई है। परन्तु मोहनीय कर्म के क्षय के कारण जली हुई रस्सी के बट की तरह ये चारों अघाती कर्म निष्फल हो जाते हैं। शरीर, आयु और भोग को बनाये रखना ही उनका कार्य रह जाता है। ऐसी आत्मा सुख - दुःख में पूर्ण समभाव में स्थित रहती है। नये कर्मों का बन्धन एकदम रुक जाता है, पुराने चार कर्मों के जितने परमाणु शेष रहते हैं, वे भी क्रमशः क्षीण होते जाते हैं । अतः अर्हत्-अवस्था को प्राप्त जीवन्मुक्त वह सशरीर वीतराग परमात्मा जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं होती तब तक भव्य जीवों के कल्याणार्थ दिव्यदेशना देता हुआ स्थान-स्थान पर विहार करता रहता है। आयुष्यकर्म के अन्तिम क्षणों में वह मन-वचन-काय तीनों योगों (प्रवृत्तियों) का निरोध करके निष्कम्पनिश्चल शैलेशी अवस्था को प्राप्त हो जाता है। फलतः चारों अघातिया कर्म भी वायु-वेग से उड़ने वाले सूखे पत्तों की तरह नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। अघाती कर्म का सर्वथा उन्मूलन हो जाने पर १ इस प्रकार अघाती कर्मों का सर्वथा उन्मूलन होते ही वह केवलज्ञानी वीतराग सदेह-मुक्त अब विदेंह मुक्त हो जाता है। अर्थात्-वह आठों ही कर्मों से, समस्त दुःखों से तथा जन्म, जरा, मरण, व्याधि, शरीर आदि से मुक्त, सिद्ध, बुद्ध हो जाता है। शरीर के छूटते ही वह अष्टविध कर्मों से सर्वथा मुक्त होकर आत्मा के ऊर्ध्वगमन स्वभाव के कारण अध्यात्मलोक के सर्वोच्चशिखर (लोक के अग्रभाग - लोकान्त) पर पहुँच जाता है। और वहाँ मोक्ष धाम - सिद्धालय में जा विराजता है । मोक्ष का अर्थ ही है-कर्म के साथ हुए सम्बन्ध से आत्मा की सर्वथा मुक्ति - आत्मा का सदा के लिए कर्मों से छुटकारा। कर्मों के कारण ही उनका जन्म मरणादि रूप बाह्य तथा योग- कषाय आदि आभ्यन्तर संसार से सम्बन्ध रहता था, परन्तु अब कर्मों से सर्वथा रहित हो जाने से संसार से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता। जन्म, जरा, मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि तथा संसार की मोहमाया एवं पुनः आवागमन से वे रहित हो जाते हैं। इनके कारणों का अभाव हो जाने से अब उन्हें शरीर धारण करने को अवकाश नहीं रहता। जीवन का लक्ष्य सिद्ध हो जाने तथा कृतकृत्य हो जाने से वे सिद्ध हो गए। ऐसी स्थिति में सिद्ध परमात्मा अपने शुद्ध आत्मस्वभाव में रमण करते हैं, अपने आत्मगुणों में लीन रहते हैं । पूर्वकाल में भी ऐसे अनन्त सिद्ध परमात्मा हो गए, वर्तमान में भी होते हैं और भविष्य में भी ऐसे अनन्त सिद्ध परमात्मा होते रहेंगे । २ १. कर्मसिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) से भावांश पृ. १३९ २. (क) वही, पृ. १३९ (ख) जैनदृष्टिए कर्म विचार (डॉ. मोतीचंद) से पृ. १८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy