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________________ कर्म - विज्ञान : कर्म का विराट् स्वरूप (३) आत्मा के स्वगुणों का घात करने वाली चारों घातीकर्मों की कुल ४७ प्रकृतियाँ हैं । ज्ञानावरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, मोहनीय की २८ और अन्तराय की ५, यों कुल ४७ प्रकृतियाँ होती हैं। उनमें से सर्वघातीकर्म प्रकृतियाँ २१ हैं और देशघाती २६ हैं । ' सर्वघाती कर्म प्रकृतियाँ ५७६ यहाँ सर्वघात का अर्थ मात्र इन गुणों के पूर्ण प्रकटन को रोकना है, न कि इन गुणों का नामशेष कर देना, या अनस्तित्व कर देना; क्योंकि ज्ञानादि गुणों के पूर्ण अभाव में आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व में कोई अन्तर नहीं रहेगा। इस विषय में पहले कहा जा चुका है। इसलिए सर्वघाती कर्म न तो आत्मा ज्ञानादि गुणों के पूर्णतया प्रकटन को रोक सकता है और न ही उसकी प्रकाश क्षमता को । सर्वघाती कर्म प्रकृतियों से केवलज्ञान, केवलदर्शन नामक - गुणों का आवरण पूर्णरूपेण होता है। पांचों प्रकार की निद्राएँ भी आत्मा की सहज अनुभूति की क्षमता को पूर्णतया आवृत करती हैं। आत्मा की स्वाभाविक सत्यानुभूति नामक गुण को मिथ्यात्व मोह तथा मिश्रमोंह सर्वथा आच्छादित कर देता है। अनन्तानुबन्धी चार कषाय सम्यक्त्व का, अप्रत्याख्यानी चार कषाय देशविरति चारित्र का, और चार प्रत्याख्यानी कषाय सर्वविरति चारित्र का पूर्ण बाधक बनता है। इस प्रकार ये कुल २१. सर्वघाती कर्म प्रकृतियाँ हैं । आत्म देशघाती कर्म प्रकृतियाँ शेष ज्ञानावरणीय कर्म की ४, दर्शनावरणीयकर्म की ३, मोहनीय कर्म की १४ और अन्तराय कर्म की ५; यों कुल २६ कर्म प्रकृतियाँ देशघाती हैं। अघाती कर्म : स्वरूप, कार्य और प्रकार घातीकर्म से विपरीत स्वभाव वाले कर्म 'अघातीकर्म' कहलाते हैं। अर्थात्-ये आत्मा के ज्ञानादि मौलिक एवं स्वाभाविक गुणों का घात या ह्रास नहीं करते, केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात या ह्रास करते हैं। आत्मा की स्वभाव दशा की उपलब्धि और आत्मगुणों के विकास में ये (अघाती) कर्म बाधक नहीं होते । यद्यपि अघातीकर्म जीव को संसार में तो भटकाते हैं; किन्तु आत्मगुणों को हानि नहीं पहुँचाते। वस्तुतः अघातीकर्म भुने हुए बीज के समान हैं जिनमें नये कर्मों को उपार्जन करने या आत्मगुणों का विनाश करने का सामर्थ्य नहीं होता । अर्थात् - कर्म - परम्परा १. (क) कर्मग्रन्थ पंचम प्रस्तवना (पं. फूलचंद जैन) से पृ. २३ २. (क) जैन कर्मसिद्धान्त : तुलनात्मक अध्ययन से भावांश पृ. ७८ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ५ प्रस्तावना पृ. २३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004242
Book TitleKarm Vignan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1990
Total Pages644
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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